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३२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
अपभ्रश के मध्यकालीन अर्थात् दसवीं शती के धनपाल विरचित कथाकाव्य ‘भविसयत्तकहा' आध्यात्मिक चरितकाव्य है। डॉ० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' इस कथा काव्य में धार्मिक बोझिलता न मानते हुए लौकिक जीवन के एक नहीं अनेक चित्र गुम्फित होना स्वीकारते हैं। इस कृति को 'सुयपंचमी कहा' अर्थात् श्र तपंचमी कथा भी कहते हैं । इसमें ज्ञान पंचमी के फल-वर्णन स्वरूप भविसयत्त की कथा बाईस संधियों में है । कथा का मूलस्वर व्रतरूप होते हुए भी जिनेन्द्रभक्ति से अनुप्राणित है।
वीर कवि की अपभ्रंश कृति 'जंबूसामिचरिउ' में जैनधर्म के अन्तिम केवली जंबूस्वामी का चरित ग्यारह सन्धियों में कहा गया है। इसका रचनाताल विक्रम संवत् १०७६ है। वीर कवि की इस कृति में ऐतिहासिक महापुरुष जंबूस्वामी के पूर्वभवों तथा उनके विवाहों और युद्धों का वर्णन अभिव्यजित है। इसमें समाविष्ट अन्तर्कथाएँ मुख्य कथावस्तु के विकास में सहायक बन पड़ी हैं।
पंचपरमेष्ठि नमस्कार महामंत्र के महत्त्व को दर्शाया है विक्रम संवत ११०० के प्रणेता नयनंदी ने अपनी बारह संधियों वाली रचना 'सुदंसणचरिउ' में । सुदर्शन का चरित शील माहात्म्य के लिए जैन जगत में विख्यात है। ग्यारहवीं शती के दिगम्बर मुनि कनकामर की कृति 'करकण्डु चरिउ' दस संधियों की रचना है जिसमें करकंडु की मुख्य कथा के साथसाथ नौ अवान्तर कथाएँ हैं जो जैनधर्म के सदाचारमय जीवन को तथा राजा को नीति की शिक्षा देने के मिस वर्णित हैं। कथा के प्रसार और
१. भविसयत्त कहा का साहित्यिक महत्व, डा० आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैन
विद्या, अंक ४, १९८६, पृष्ठ ३० ।। २. अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डा० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति',
पृष्ठ ४८ । ३. जंबूसामिचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डा० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति',
जैनविद्या, अप्रेल १९८७, पृष्ठ ३३-४० । ४. सुदंसणचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डा० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', जैन
विद्या, अक्टूबर १९८७, पृष्ठ १-११ ।
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