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अपभ्रंश जैन कथा साहित्य
अपभ्रंश कथा काव्य के वस्तु तत्त्व के विकास और अलंकरण की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । ये सभी कथा काव्यों में समान रूप से उपलब्ध हैं । अपभ्रंश कथा - काव्य के निर्माता एक विशेष युग और दृष्टि से प्रभावित थे । कथा कहकर कुतूहल जगाना या मात्र मनोविनोद करना उनका लक्ष्य नहीं था । वे ऐसे कथा साहित्य की रचना करना चाहते थे, जिससे काव्यकला के विधान और उद्देश्य की पूर्ति के साथ नैतिकता और धार्मिक उद्द ेश्य भी प्रतिफलित हो जाए । कोरे साहित्यकारों या धर्मवादियों की अपेक्षा इनका दृष्टिकोण कुछ उदार और लोक कल्याणकारी था । 1 कथासाहित्य की यह विरासत इन्हें परम्परा से प्राप्त थी। इसमें प्रयुक्त कथाओं के सूत्र भारतीय पुराणों से मिलते-जुलते हैं । अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य को कथा काव्य कहना अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसमें कथा की मुख्यता रहती है । चाहे कथा पौराणिक हो या काल्पनिक । जैन अपभ्रंश की प्रायः समस्त प्रबन्धात्मक कथाकृतियाँ पद्यबद्ध हैं और प्रायः सबके चरितनायक या तो पौराणिक हैं या जैन धर्म के निष्ठापूर्ण अनुयायी । भाषा, छंद, कवित्व सभी दृष्टियों से कथाकृतियाँ अपभ्रंश साहित्य का उत्कृष्ट और महनीय रूप प्रदर्शित करती हैं । 2
अपभ्रंश कथा साहित्य का सूत्रपात स्वयंभू से होता है । उनका ‘पउमचरिउ' रामकथा का जैन परम्परासम्मत रमणीय रूप दर्शाता है । यह संस्कृत के 'पद्मपुराण' (रविषेणकृत) और प्राकृत के विमलसूरिकृत 'पउमचरिय' से उत्प्रेरित है । स्वयंभू ने इसमें अपनी मौलिक घटनाओं को भी निबद्ध किया है । 'पउमचरिउ' की सम्पूर्ण कथा अहिंसा के सिद्धान्त पर
१. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डा० देवेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ ८५-८६ । २. अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, आगरा विश्वविद्यालय की डी० लिट्० उपाधि का शोध प्रबन्ध, सन् १९८८, डा० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' पृष्ठ ४२-४४ ।
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