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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
भारतीय साहित्य में प्राकृत कथा साहित्य ही लोककथा का आदि स्रोत हैं । वसुदेव हिण्डी में लोककथाओं का मूल रूप मिलता है । गुणाढ्य रचित बृहत्कथा तो लोककथाओं का एक प्रकार से विश्व कोष है। लोककथाओं के आधार से ही प्राकृत - कथा लेखकों ने धर्मकथाएँ निर्मित की हैं । पालिकथा साहित्य में पूर्वजन्म कथा का मुख्य भाग रहता है जबकि प्राकृत में गौण रहता है । पालिकथाओं में बोधिसत्व ही मुख्य पात्र हैं और सभी कथाओं का उपसंहार उपदेश रूप में होता है। जबकि प्राकृत-कथाओं में यह बात नहीं है । पालिकथाओं में एक ही शैली है जवकि प्राकृत - कथाओं में विभिन्न शैलियाँ हैं । पालिकथाओं में पात्रों को सीधा ही नैतिक धार्मिक बताया जाता है किन्तु प्राकृत कथाओं में कथोपकथन, शील-निरूपण आदि के द्वारा उसके चरित्र को बताया जाता है । पहले उसके जीवन की विकृ तियों को बताकर बाद में लम्बे संघर्ष के पश्चात् किस प्रकार वह अपने जीवन को निखारता है, यह बताया जाता है । सिद्धान्त की स्थापना भी उस समय की जाती है । डॉ० रामसिंह तोमर कहते हैं कि "इस साहित्य पर दृष्टिपात करने से कथा कहने के अनेक प्रकारों के दर्शन होते हैं । धार्मिक, लौकिक, स्वतंत्र तथा आंतर कथाएँ एक सूत्र में पिरोने के ढंग आदि अनेक विशेषताएँ मिलती हैं । " " इस प्रकार प्राकृत जैन कथा साहित्य लौकिक कथा-कहानियों का अक्षय भंडार है । कितनी ही रोचक और मनोरंजक लोककथाएँ, लोकगाथाएँ, नीतिकथाएँ दंतकथाएँ ( लीजेंड्स), परीकथाएँ, प्राणिकथाएँ, कल्पित कथाएँ, दृष्टान्त कथाएँ, लघुकथाएँ, आख्यान और वार्त्ताएँ, आदि यहाँ उपलब्ध हैं जो भारतीय संस्कृति की अक्षयनिधि हैं । 2
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प्राकृतकथाओं की विशेषताओं से प्रभावित होकर प्रो० हर्टेल ने लिखा है - "कहानी कहने की कला की विशिष्टता प्राकृत कथाओं में पाई जाती है । ये कहानियाँ भारत के भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों के रस्म, रिवाज को पूर्ण सचाई के साथ अभिव्यक्त करती हैं । ये कथाएँ जनसाधारण की शिक्षा का उद्गम स्थान ही नहीं है वरन् भारतीय सभ्यता का इतिहास भी हैं । "3
१. प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, रामसिंह तोमर, पृष्ठ २१ ।
२. प्राकृत जैन कथा साहित्य, डा० जगदीशचन्द्र जैन, पृष्ठ १६७ । ३. आन दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बराज् आफ गुजरात, पृष्ठ ८ ।
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