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________________ प्राकृत जैन कथा साहित्य २७ कथाकृतियाँ उपलब्ध होती हैं जिनका लक्ष्य कथा को मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करना न होकर जैन मुनियों द्वारा पाठकों को उपदेश प्रदान करना रहा है। इस प्रकार की उपदेशप्रद कथाओं में धर्मदास गणि की उपदेशमाला, जयसिंहसूरि की धर्मोपदेशमाला, जयकीर्ति की शीलोपदेशमाला, विजयसिंह सूरि की भुवनसुन्दरी, मलधारी हेमचन्द्रसूरि की उपदेशमाला, साहड की विवेकमञ्जरी, मुनिसुन्दर सूरि का उपदेश रत्नाकर, शुभवर्धन गणि की वर्धमान देशना एवं सोमविमल की दशदृष्टान्तगीता आदि रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं ।1 उपदेशप्रद कथाओं में उपदेश की प्रधानता है। अन्य विषय गौण हैं। _हिन्दी और अपभ्रंश साहित्य में प्रेमाख्यान का जो विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है उसके बीज प्राकृत कथा साहित्य में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। यद्यपि प्राकृत कथाएँ धर्मकथा के रूप में ही प्रमुख रही हैं तथापि उन कथाओं में प्रसंगवश मदनोत्सव, वसन्तमहोत्सव, प्रेमपत्र, प्रेमानुराग प्रभृति प्रसंगों पर जो मानसिक भावों का शृंगारप्रधान चित्रण हुआ है वही चित्रण प्रेमाख्यान का मूलबीज है जो वट वृक्ष सदृश वहाँ विकसित हुआ है। प्राकृत कथा साहित्य का कथोत्थप्ररोह भी प्रेक्षणीय प्याज के छिलकों के समान एक छिलके पश्चात् दूसरा छिलका जैसे निकलता रहता है, वैसे ही प्राकृत-कथाओं में एक कथा से दूसरी कथा निकलती रहती है जो कथाशिल्प की दृष्टि से एक सुन्दर योजना है। ___चम्पूविधा का विकास भी प्राकृत कथा साहित्य से ही हुआ है। कथाओं को सरस बनाने की दृष्टि से प्राकृत-कथाओं में गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग होता है। पद्य भावना का प्रतीक है तो गद्य विचारों का प्रतीक है । भावना का सम्बन्ध हृदय से है और विचारों का सम्बन्ध मस्तिष्क से है, अतः कथाकारों ने गद्य के साथ पद्य का प्रयोग किया और पद्य के साथ गद्य का। समराइच्च कहा और कुवलयमाला इसी प्रकार की रचनाएँ हैं। दण्डी ने गद्य-पद्य मिश्रित जो चम्पू की परिभाषा दी है वह तो प्राकृत-कथा साहित्य में पूर्व ही विद्यमान थी। अतः संस्कृत भाषा में जो चम्पविधा का विकास हुआ है, उस विधा का मूलस्रोत प्राकृत-कथाएँ ही हैं। १. प्राकृत कथा साहित्य, प्राकृतभाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डा० नेमीचन्द्र जैन शास्त्री, पृष्ठ ५१७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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