________________
२६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
जिनहर्षसूरि ने विक्रम संवत् १४८७ में 'रयणसेहरनिवकहा' अर्थात् रत्नशेखर नपति कथा का प्रणयन किया। जायसी के 'पद्मावत' की कथा का मूल' प्रस्तुत कथा है । डॉ० नेमीचन्द्र जैन शास्त्री इस कथा को 'पद्मावत' का पूर्व रूप स्वीकारते हैं। यह एक प्रेम कथा होने पर भी लेखक ने प्रेम का वासनात्मक रूप नहीं, पर प्रेम का विशुद्ध व उदात्त रूप उपस्थित किया है। राग का उदात्तीकरण ही विराग है । मूल कथा के साथ प्रासंगिक कथाएँ भी अनेक आयी हैं। कथाशिल्प की दृष्टि से प्रस्तुत कथानक पूर्ण सफल है। दैवी चमत्कारिक घटनाएँ व अतिमानवीय तत्त्वों के आधिक्य से कथा में कुतूहल के साथ प्रभावोत्पादकता भी है ।
महिवाल कथा के रचयिता वीरदेवगणि हैं । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से अवगत होता है कि देवभद्रसूरि चन्द्रगच्छ में हुए थे। इनके शिष्य सिद्धसेनसूरि और सिद्धसेनसूरि के शिष्य मुनिचन्द्रसूरि थे। वीरदेव गणि मुनिचन्द्र के शिष्य थे। विण्टरनित्स ने एक संस्कृत 'महीपाल चरित' का भी उल्लेख किया है जिसके रचयिता चरित्रसून्दर बतलाये हैं । इसका रचनाकाल पन्द्रहवीं शती का मध्य भाग है । परिकथा और निजन्धरी इन दोनों का यह मिश्रित रूप है।
उक्त प्रमुख कथा रचनाओं के अतिरिक्त संघतिलकसूरि द्वारा विरचित आरामसोहाकहा, पंडिअधणवालकहा, पुण्णचूलकहा, आरोग्गदुज कहा, रोहगुत्तकहा, वज्जकण्ण निवकहा, सुहजकहा और मल्लवादीकहा, भद्दबाहुकहा, पादलिप्ताचार्य कहा, सिद्धसेन दिवाकर कहा, नागयत्त कहा, बाह्याभ्यन्तर कामिनीकथा, मेतार्यमुनि कथा, द्रवदन्त कथा, पद्मशेखर कथा, संग्रामसूर कथा, चन्द्रलेखा कथा एवं नरसुन्दर कथा आदि बीस कथाएँ उपलब्ध हैं । देवचन्द्रसूरि का कालकाचार्य कथानक एवं अज्ञात नामक कवि की मलयसुन्दरी कथा विस्तृत कथाएँ हैं । प्राकृत कथा साहित्य में कुछ ऐसी
१. प्राकृत कथा साहित्य, प्राकत-भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, ___ डा० नेमीचन्द्र जैन शास्त्री, पृष्ठ ५१०-५१३ । २. साहित्य और संस्कृति, देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृष्ठ ८६ । ३. प्राकृत कथा साहित्य, प्राकृत-भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास,
डा० नेमीचन्द्र जैन शास्त्री, पृष्ठ ५१३-५१५ । ४. Indian Literature Vol. ii, Page ५३६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org