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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ४१६ गुरु ने पूछा-'कौन हो भाई ? कहाँ से आये हो ?' सिद्ध ने उत्तर दिया-'रात, मैं देर से घर पहुंचा, तो माँ ने दरवाजा न खोलकर, उल्टा यह कहा-जहाँ का दरवाजा खुला हो, वहाँ चले जाओ। इसलिए, मैं यहां आया हूँ, और आपके पास ही रहना चाहता हूँ।' ____ गुरु ने उन्हें कहा-'हमारे पास, हमारा वेष लिए वगैर तुम नहीं रह सकते । और, फिर तुम्हारे जैसे व्यसनी के लिए, यह वेष लेना और उसकी मर्यादाओं का पालन करना कठिन है। क्योंकि, हमारा वेष लेने वाले को, नंगे पैर पैदल चलना पड़ता है। भिक्षा में जो कुछ भो रूखासूखा मिल जाये, वही खाना पड़ता है। सिर के बालों का लोच करना पडता है । इसलिए, तुम्हारे लिए यह वेष धारण कर पाना दुष्कर है।' सिद्ध ने कहा-'हमारे जैसे जुआरी को धूप-वर्षा-सर्दी सब सहन करने पड़ते हैं। जहां जगह मिल जाए, वहीं रहना पड़ता है। जब दुर्व्यसनों के लिए हम इतने कष्ट उठाते रहे हों, तब, उन्नति के लिए क्या, कुछ सहन नहीं कर सकेंगे ? आप निःसंकोच, प्रातःकाल मुझे दीक्षा दें।' गुरु ने कहा-'तुम्हारे माता-पिता कुटुम्बीजनों की आज्ञा के बिना, हम दीक्षा नहीं देते । अतः उनसे आज्ञा मिलने पर ही दीक्षा दे पायेंगे।" सिद्ध ने कहा- "जैसा आप उचित समझें।' और वहीं, बैठ गया। प्रातःकाल होते ही, उसके पिता ने, पुत्र के बारे में पूछा,, तो लक्ष्मी ने सारा किस्सा उसे बता दिया। सूनकर, सेठ को बहुत दुःख हुआ। और, अपने बेटे को ढूंढने के लिए घर से निकल पड़ा। ढूंढते-ढूंढते वह उपाश्रय में भी पहुँचा। वहां सिद्ध को बैठा देखकर, उसने उसे घर चलने को कहा। सिद्ध बोला-'पिताजी ! घर तो छोड़ दिया है । अब इनकी सेवा में हो रहूँगा।' सेठ ने कहा-'तू अकेला मेरा बेटा है। करोड़ों की सम्पति है। यह सब किस काम आयेगी? साधु-जीवन में बहुत परीषह सहने पड़ेंगे।' सिद्ध, अपनी बात पर डटा रहा, तो सेठ को आज्ञा देनी ही पड़ी। इस तरह जुआरी सिद्ध, सिद्धमुनि बना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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