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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
आचार्य सिद्धर्षि गणी निवृत्ति कुल के थे। भगवान महावीर की युग प्रधान पट्टावली के अनुसार २१वें पट्टधर वज्रसेन हुए हैं, उन्होंने सोपारक नगर में श्रेष्ठी जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी के चार पुत्रों को आहती दीक्षा प्रदान की थी। उनके नाम थे-नागेन्द्र, चन्द्र, निवत्ति और विद्याधर । इन चारों के नाम से चार परम्परायें प्रारम्भ हुईं, जो नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर कुलों के नाम से विश्रुत हुई। निवृत्ति कुल में अनेक मूर्धन्य मनीषी गण हुए हैं। विशेषावश्यक भाष्य के रचयिता जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण भी निवृत्ति कुल के थे। चौपन्न महापुरुषचरियम् ग्रन्थ के लेखक शीलाचार्य भी निवृत्ति कुल के थे और आचार्य अभयदेव ने जो नवांगी टीका लिखी, उस टीका के संशोधक द्रोणाचार्य भी निवृत्ति कुल के थे। इसी महानीय कुल के महर्षि गर्गर्षि ने सिद्ध को भागवती दीक्षा प्रदान की।
सिद्ध ने दीक्षानन्तर कठिन तपस्या की, जैन धर्म के सिद्धान्त-शास्त्रों का गहन अध्ययन/अभ्यास किया, और सिद्धमुनि से सिर्षि बन गया । 'उपदेशमाला' पर सरल भाषा में 'बालावबोधिनी' टीका लिखी।
एक दिन, उसके मन में विचार उठा-'मुझे अभी बहुत शास्त्राभ्यास करना है। विशेषकर, उग्र तर्कवादी बौद्धों के शास्त्रों का।' इसी विचार को क्रियान्वित करने के लिए, उन्होंने अपने गुरु से आज्ञा मांगी कि, वह किसी बौद्ध विद्यापीठ में जाकर उनके शास्त्रों का अभ्यास कर सके।
गुरु ने समझाया-'शास्त्र अभ्यास करना तो अच्छा है। किंतु, बौद्ध अपने तर्कों से लोगों को भ्रमित कर देते हैं। फलतः उनके यहां रहने से लाभ की बजाय हानि अधिक हो सकती है। अतः यह विचार छोड़ दो।' किंतु, सिद्धर्षि की विशेष जिद देखकर, उन्होंने इस शर्त पर आज्ञा दी कि बौद्धों के तर्कों में उलझकर, तेरा मन डगमगाने लगे, तो यहां वापिस आ कर, हमारा वेष हमें वापिस कर देना।'
सिद्धर्षि वचन देकर और वेष बदलकर, बौद्ध विद्यापीठ चले गए।
सिद्धर्षि की मेहनत और प्रतिभा देखकर, बौद्धों ने उनके साथ सद्भाव रखा। धीरे-धीरे सिद्धर्षि पर उनके व्यवहार का और उनके कुतर्को
१ खरतरगच्छ पट्टावली, देखिये जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृष्ठ ६६३
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