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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ४११ आचरण का भाव पक्ष है, वह निश्चयचारित्र है। व्यवहारचारित्र में पंच महाव्रत, तीन गुप्तियाँ, पंच समिति और पंच चारित्र आदि का समावेश है, तो निश्चयचारित्र में राग-द्वेष, विषय और कषाय को पूर्ण रूप से नष्ट कर आत्मस्थ होना है। सम्यकचारित्र से सद्गुणों का विकास होता है । सम्यक्चारित्र से साधना में पूर्णता आती है। सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत सम्यक् तप का भी उल्लेख हुआ है । तत्त्वार्थ सूत्र प्रभृति ग्रन्थों में सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रइस त्रिविध साधना मार्ग का उल्लेख है, तो उत्तराध्ययन आदि में चतुर्विध साधना का निरूपण हुआ है। उसमें सम्यक् तप को चतुर्थ साधना का अंग माना है । तप साधक के जीवन का तेज है, ओज है। तप आत्मा की परिशोधन की प्रक्रिया है, पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने की एक वैज्ञानिक पद्धति है । तप के द्वारा ही पाप कर्म नष्ट होते हैं, जिससे आत्म-तत्व की उपलब्धि होती है और आत्मा का शुद्धिकरण होता है। अनन्त काल से कर्म-वर्गणाओं के पुद्गल राग-द्वष व कषाय के कारण आत्मा के साथ एकीभूत हो चुके हैं। उन कर्म-पुद्गलों को नष्ट करने के लिए तप आवश्यक है । तप से कर्मपुद्गल आत्मा से पथक होते हैं और आत्मा की स्वशक्ति प्रकट होती है तथा शुद्ध आत्म-तत्व की उपलब्धि होती है। तप का लक्ष्य है-आत्मा का विशुद्धीकरण व आत्म परिशोधन । जैन-परम्परा में ही नहीं, वैदिक और बौद्ध परम्परा ने भी तप की महिमा और गरिमा को स्वीकार किया है । इन तीनों ही परम्पराओं ने आत्म-तत्व की उपलब्धि के लिए तप का निरूपण किया है और तप के विविध भेद-प्रभेद भी किये हैं। आचार्य सिद्धर्षि गणी ने उपमिति भव-प्रपञ्च कथा में जीवन-शुद्धि के लिए, ये चारों मार्ग प्रतिपादित किये हैं। उन्होंने कथा के माध्यम से यह बताया है कि 'सम्यग्दर्शन की एक बार उपलब्धि हो जाने पर भी जीव पूनः मिथ्यात्वी बन जाता है, और वहाँ पर चिरकाल तक विपरीत श्रद्धान को स्वीकार कर जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करने लगता है । सम्यगदर्शन और सम्यक्ज्ञान प्राप्त करने के लिए वह पुनः प्रयासरत होता है और उससे बढ़कर सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप को स्वीकार कर, वह एक दिन सम्पूर्ण कर्म-शत्रओं को नष्ट कर पूर्ण मुक्त बन जाता है। और सदा-सदा के लिए उस जीवात्मा का भव-प्रपंच मिट जाता है तथा वह आत्मा मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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