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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
मोक्ष का अर्थ मुक्त होना है । मोक्ष शब्द 'मोक्ष असने' धातु से बना है, जिसका अर्थ छूटना या नष्ट होना होता है। इसलिए समस्त कर्मों का समूल आत्यन्तिक उच्छेद होना मोक्ष है। पूज्यपाद ने लिखा है- 'जब आत्मा, कर्म रूपी कलंक शरीर से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है, तब अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञान आदि गुण रूप और अव्याबाध आदि सुख रूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, वह मोक्ष है' । तत्वार्थ-वार्तिक में आचार्य अकलङ्क ने लिखा है-'बन्धन से आबद्ध प्राणी, बन्धन से मुक्त हो कर अपनी इच्छानुसार गमन कर सुख का अनुभव करता है, वैसे ही कर्म के बन्धन से मुक्त होकर आत्मा सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र होकर ज्ञान-दर्शन रूप अनुपम सुख का अनुभव करतो है । यही बात धवला, सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थ-श्लोक-वार्तिक में भी कही गई है। सभी विज्ञों ने यह तथ्य स्वीकार किया है कि आत्म-स्वरूप का लाभ हो मोक्ष है । कर्म-मलों से मुक्त आत्मा शुद्ध है । बौद्ध दार्शनिकों ने मोक्ष के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है-जैसे दीपक के बुझ जाने से प्रकाश का अन्त हो जाता है, वैसे ही कर्मों का क्षय हो जाने से निर्वाण में चितसन्तति का विनाश हो जाता है, इसलिए मोक्ष में जीव का अस्तित्व नहीं है। पर, जैन दार्शनिकों का अभिमत है कि मोक्ष में जीव का अभाव नही होता । जीव एक भव से भवान्तर रूप परिणमन करता है। देवदत्त के एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाने पर उसका अभाव नहीं माना जाता, वैसे ही जीव के मुक्त होने पर उसका अभाव नहीं होता।' आचार्य अकलंक ने भी बौद्ध दार्शनिकों के अभिमत पर चिन्तन करते हुए लिखा है-'दीपक के बुझ जाने पर दीपक का विनाश नहीं होता, किन्तु उस दीपक के तेजस् परमाणु अन्धकार में परिवर्तित हो जाते हैं, वैसे ही मोक्ष होने पर जीव का विनाश नहीं होता, अपितु कर्मों का क्षय होते ही आत्मा अपने विशुद्ध चैतन्यावस्था में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए मोक्ष में जीव का अभाव नहीं होता।
१ (क) सर्वार्थसिद्धि १/४ (ख) तत्वार्थ-वार्तिक १/१/३७ २ सर्वार्थ-सिद्धि-उत्थोनिका, पृष्ठ १ ३ तत्त्वार्थ-वातिक १/४/२७, पृष्ठ १२ ४ धवला १३/५/५/८२, पृण्ठ ३४८ ५ सर्वार्थसिद्धि ७/१६
६ तत्वार्थ-श्लोकवार्तिक, १/१/४ ७ तत्वार्थ-श्लोकवातिक १/१/४ ८ तत्वार्थ-वार्तिक १०/४/१७, पृष्ठ ६४४
५ तत्वाच
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