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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
वह ज्ञान सम्यकज्ञान नहीं है। आत्मज्ञान, इन्द्रियज्ञान, बौद्धिक ज्ञान से भी बढ़कर है । आत्मज्ञान को ही जैन मनीषियों ने सम्यग्ज्ञान कहा है।
सम्यग्ज्ञान की परिणति सम्यक्चारित्र है। सम्यक्चारित्र आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। आध्यात्मिक पूर्णता के लिए दर्शन की विशुद्धि के साथ ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान के बिना जो श्रद्धा होती है-~-वह सम्यकश्रद्धा न होकर, अन्ध श्रद्धा होती है। श्रद्धा जब ज्ञान से समन्वित होती है, तभी सम्यक-चारित्र की ओर साधक की गति और प्रगति होती है। एक चिन्तक ने लिखा है-दर्शन परिकल्पना है, ज्ञान प्रयोग विधि है और चारित्रप्रयोग है। तोनों के सहयोग से ही सत्य का साक्षात्कार होता है। जब तक सत्य स्वयं के अनुभव से सिद्ध नहीं होता, तब तक वह सत्य पूर्ण नहीं होता। इसीलिए श्रमण भगवान महावीर ने अपगे अन्तिम प्रवचन में कहा-ज्ञान के द्वारा परमार्थ का स्वरूप जाना, श्रद्धा के द्वारा उसे स्वीकार करो और आचरण कर उसका साक्षात्कार करो । साक्षात्कार का ही अपर नाम सम्यक्चारित्र है।
सम्यकचारित्र से आत्मा में जो मलिनता है, वह नष्ट होती है। क्योंकि, जो मलिनता है, वह स्वाभाविक नहीं, अपितु वैभाविक है, बाह्य है, और अस्वाभाविक है। उस मलिनता को ही जैन दार्शनिकों ने कर्म-मल कहा है, तो गीताकार ने त्रिगुण कहा है और बौद्ध दार्शनिकों ने उसे बाह्य-मल कहा है । जैसे अग्नि के संयोग से पानी उष्ण होता है, किन्तु अग्नि का संयोग मिटते ही पानी पुनः शोतल हो जाता है, वैसे ही आत्मा बाह्य संयोगों के मिटने पर अपने स्वाभाविक रूप में आ जाता है । सम्यक चारित्र बाह्य संयोगों से आत्मा को पृथक् करता है। सम्यक्चारित्र से आत्मा में समत्व का संचार होता है। यही कारण है कि प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि, चारित्र ही वस्तुतः धर्म हैं। जो धर्म है, वह समत्व है । जो समत्व है, वही आत्मा की मोह और क्षोभ से रहित शुद्ध अवस्था है। चारित्र का सही स्वरूप समत्व की उपलब्धि है। चारित्र के भी दो प्रकार हैं-व्यवहारचारित्र और निश्चयचारित्र। आचरण के जो बाह्य विधि-विधान हैं, उसे व्यवहार चारित्र कहा गया है और जो
१ जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, पृष्ट
८४, डा. सागरमल जैन, प्र. प्राकृत भारती जयपुर २ प्रवचनसार १/७
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