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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ४०६ 'भेदविज्ञानतः सिद्धाः, सिद्धा ये किल केचन'। जितने भी आज दिन तक सिद्ध हुए हैं, वे सभी भेद-विज्ञान से हुए हैं । वस्तुतः सम्यग्दर्शन एक जीवनदृष्टि है । जीवन-दृष्टि के अभाव में जीवन का मूल्य नहीं है। जिस प्रकार की दृष्टि होती है उसी प्रकार की सृष्टि भी होती है अर्थात् दृष्टि की निर्मलता से ही ज्ञान भी निर्मल होता है और चारित्र भी । इसलिए सर्वप्रथम दृष्टि-निर्मलता को ही सम्यग्दर्शन कहा है। इस विराट विश्व में ऐसी कोई भी आत्मा नहीं है, जिसमें ज्ञान गुण न हो । भगवती आदि आगमों में आत्मा को ज्ञानवान कहा है ।1 ज्ञान आत्मा का ऐसा गुण है, जो अविकसित से अविकसित अवस्था में भी विद्यमान रहता है, पर मिथ्यात्व के कारण ज्ञान अज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है । पर, ज्यों ही सम्यग्दर्शन का संस्पर्श होता है, अज्ञान ज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसीलिए आचार्य कुन्दकन्द ने कहा है'ज्ञान ही मानव जीवन का सार है।' अविद्या के कारण ही पुनः पुनः जन्म और मृत्यु के चक्कर में आत्मा आती रहती है। वह एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण करती है। जिस आत्मा में ज्ञान और प्रज्ञा होती है, वही आत्मा निर्वाण के समीप होती है । ज्ञान रूपी नौका पर आरूढ़ होकर पापी से पापी व्यक्ति भी संसार रूपी समुद्र को पार कर जाता है। ज्ञान ऐसी जाज्वल्यमान अग्नि है, जो कर्मों को भस्म कर देती है। इसीलिए कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि 'इस विश्व में ज्ञान के सदृश अन्य कोई भी पवित्र वस्तु नहीं है ।' ज्ञान वह है, जो आत्मविकास करता हो । उसका दृष्टिकोण सदा सत्यान्वेषी होता है । वह स्व का साक्षात्कार करता है । इसीलिये आचारांग के प्रारम्भ में कहा गया कि 'साधक प्रति. पल, प्रतिक्षण यह चिन्तन करे कि, मैं कौन हैं ?' छान्दोग्योपनिषद में भी ऋषियों ने कहा-जिसने एक आत्मा को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया । उपाध्याय यशोविजय जी ने ज्ञानसार ग्रन्थ में लिखा है, जो ज्ञान मोक्ष का साधक है-वह श्रेष्ठ है । और, जो ज्ञान मोक्ष की साधना में बाधक है, वह ज्ञान निरुपयोगी है। जिस ज्ञान से आत्मविकास नहीं होता, १ (क) भगवती १२/१० (ग) समयसार, गाथा ७ २ छान्दोग्योपनिषद् ६/१/३ (ख) आचारांग ५/५/१६६ (घ) स्वरूप-सम्बोधन ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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