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________________ ४०८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा उन कर्मों को अपने प्रबल पुरुषार्थ से हटा सकता है । कर्म से मुक्त होने के लिए जैन मनीषियों ने चार उपाय बताये हैं । वे हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप । आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन आवश्यक है। सम्यग्दर्शन का अर्थ- तत्त्व रुचि है, सत्य अभीप्सा है। सत्य की प्यास जब तीव्र होती है, तभी साधना मार्ग पर कदम बढ़ते हैं। उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यग्दर्शन शब्द तत्त्व-श्रद्धा के अर्थ में व्यवहृत हुआ है, तो आवश्यक सूत्र में देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा और भक्ति के अर्थ में सम्यग्दर्शन का प्रयोग है। सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व और सम्यग्दृष्टि आदि शब्द समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। सम्यग्दृष्टि का जीव और जगत् के सम्बन्ध में सही दृष्टि-कोण होता है। जबकि मिथ्यादृष्टि का जीव और जगत् के सम्बन्ध गलत दृष्टिकोण होता है। मिथ्या दृष्टिकोण संसार का किनारा है और सम्यग्-दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है । सम्यग्दर्शन मुक्ति का अधिकार पत्र है। सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होता। सम्यग्ज्ञान के बिन सम्यकचारित्र नहीं होता । और सम्यकचारित्र के बिना मुक्ति नहीं होती। इसलिए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है, जैसे चेतनारहित शरीर शव है, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित साधना भी शव की तरह ही है । सम्यग्दर्शन मुक्ति महल में पहुँचने का प्रथम सोपान है, इसलिए दर्शन पाहुड़ और रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि में जीवन विकास के लिए ज्ञान और चारित्र के पूर्व दर्शन को स्वीकार किया है। सम्यग्दर्शन होने पर ही साधक को भेदविज्ञान होता है और वह समझता है कि 'मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निरंजन और निराकार हूँ । जो यह विराट विश्व में दिखलाई दे रहा है, वह पृथक् है और मैं पृथक् हूँ। आत्मा और शरीर ये पृथक्-पृथक् है । सुख और दुःख की जो भी अनुभूति हो रही है, वह मुझे नहीं किन्तु शरीर को है।' इस प्रकार भेद-विज्ञान का दीप जलते ही जीवन में समता का आलोक जगमगाने लगता है । इसीलिए आचार्य अमृतचंद्र ने लिखा १ उत्तराध्ययन २८/३५ ३ अंगुत्तर निकाय १०/१२ ५ रत्नकरण्डक श्रावकाचार १/१८ २ तत्त्वार्थसूत्र १/२ ४ दर्शन पाहुड, गाथा, १/२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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