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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य होने के कारण स्वरूपतः अमुर्त होने पर भी कथंचित् मूर्त्त होने से उस पर मूर्त कर्म का उपघात, अनुग्रह और प्रभाव पड़ता है। जब तक आत्मा कर्म - शरीर के बन्धन से मुक्त नहीं होता तब तक वह कर्म के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मुर्त्त शरीर के माध्यम से मूर्त्त कर्म का प्रभाव पड़ता है । यहाँ यह भी सहज जिज्ञासा हो सकती है कि मूर्त्त कर्म अमूर्त आत्मा से किस प्रकार सम्बन्धित होते हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार किया गया हैं कि, जैसे मूर्त्त घट अमूर्त्त आकाश के साथ सम्बन्धित होता है वैसे ही मूर्त्त कर्म अमूर्त्त आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं । यह आत्मा और कर्म का सम्बन्ध नीर-क्षीरवत् होता है । यहाँ पर यह भी जिज्ञासा हो सकती है कि जड़ कर्म परमाणुओं का चेतन के साथ पारस्परिक प्रभाव को माना जाए तो सिद्धावस्था में भी जड़ कर्म शुद्ध आत्मा को प्रभावित करेंगे ? पर यह बात नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में लिखा है - स्वर्ण कीचड़ में चिरकाल तक रहता है, तो भी उस पर जंग नहीं लगता, पर लोहा तालाब में भी कुछ समय तक रहे तो जंग लग जाता है, वैसे ही सिद्ध आत्मा स्वर्ण की तरह है, उस पर कर्मों का जंग नहीं लगता । जब तक आत्मा कार्मण शरीर से युक्त है, तभी तक उसमें कर्म-वर्गणाओं को ग्रहण करने की शक्ति रहती है । भाव-कर्म से ही द्रव्य-कर्म का आस्रव होता है । कर्म और आत्मा का सम्बन्ध आज का नहीं अनादि काल का है । जन दृष्टि से शुभाशुभ का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है, दूसरों को नहीं । श्रमण भगवान महावीर ने भगवती में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का भोग करते हैं, पर परकृत सुख-दुःख का भोग नहीं करते ।' जातक साहित्य का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि बोधिसत्त्व के अन्तर्मानस में ये विचार लहरियाँ तरंगित होती हैं कि मेरे कुशल कर्मों का फल संसार के सभी प्राणियों को प्राप्त हो, पर जैन दर्शन इस विचार से सहमत नहीं है । जैसा हम कर्म करेंगे वैसा ही फल हमें मिलेगा। दूसरा व्यक्ति उस कर्मविभाग में संविभाग नहीं कर सकता । जैन दर्शन ने कर्म सिद्धान्त के सम्बन्ध में अत्यधिक विस्तार से चिन्तन किया है। जैनदर्शन का कर्म सिद्धान्त इतना वैज्ञानिक और अद्भुत है कि विश्व का कोई भी चिन्तक उसे चुनौती नहीं दे सकता । उस गहन दार्शनिक सिद्धान्त को आचार्य सिद्धर्षिगणी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में इस प्रकार संजोया है कि देखते ही बनता है । आचार्यश्री की प्रकृष्ट प्रतिभा ने ग्रन्थ में चार चाँद लगा दिये हैं । कर्म का जीव के साथ अनादि काल का सम्बन्ध है, पर जीव चाहे तो Jain Education International For Private & Personal Use Only ४०७ www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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