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________________ ४०६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा मनोभाव और दूसरा है-कर्म पुद्गल । कर्म पुद्गल क्रिया का साधन निमित्त है और राग-द्वष आदि क्रिया है । कर्म पुद्गल जो प्राणी की शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर, उससे अपना सम्बन्ध स्थापित कर कर्म शरीर की रचना करते हैं और समय विशेष के पकने पर अपने फल के रूप में विशेष प्रकार की अनुभूतियां देकर पृथक् हो जाते हैं, उन्हें जैन दर्शन की भाषा में द्रव्य-कर्म कहा गया है । गोम्मटसार में आचार्य नेमीचन्द्र ने लिखा है-पुद्गल पिण्ड 'द्रव्य-कर्म' है और चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति 'भाव-कर्म है। द्रव्य-कर्म सूक्ष्म कार्मण जाति के परमाणुओं का विकार है और आत्मा उसका निमित्त कारण है। आचार्य विद्यानन्दि ने द्रव्य-कर्म को आवरण और भाव-कर्म को दोष कहा है। क्योंकि, द्रव्य-कर्म आत्म-शक्तियों के प्रकटन में बाधक है इसलिए उसे आवरण कहा है और भाव-कर्म आत्मा की विभाव अवस्था है इसलिए उसे दोष कहा है । जैन दर्शन ने आवरण और दोष या द्रव्यकर्म और भावकर्म के बीच कार्य-कारण-भाव माना है।। भाव-कर्म के होने में द्रव्य कर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त है। दोनों का परस्पर बीजांकुर की तरह, कार्य-कारण-भाव सम्बन्ध है। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज बनता है, उनमें से किसी को भी पूर्वापर नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म में भी पहले कौन है या बाद में कौन है, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। द्रव्य-कर्म की दृष्टि से भाव-कर्म पहले है और भाव-कर्म के लिए द्रव्य-कर्म पहले होगा । वस्तुतः इनमें सन्तति की अपेक्षा से अनादि कार्य-कारणभाव है। जैन दृष्टि से द्रव्य-कर्म पुद्गलजन्य हैं, इसलिये मूर्त हैं। कर्म मूर्त हैं, तो फिर अमूर्त आत्मा पर अपना प्रभाव किस प्रकार डालते हैं ? जैसे वायु और अग्नि अमूर्त आकाश पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसी तरह अमूर्त आत्मा पर मूर्त्त कर्म का प्रभाव नहीं हो सकता। इस जिज्ञासा का समाधान मूर्धन्य मनीषियों ने इस प्रकार किया है - जैसे अमूर्त ज्ञान आदि गुणों पर मूर्त मदिरा आदि नशीली वस्तुओं का प्रभाव पड़ता है वैसे ही अमूर्त जीव पर भी मूर्त्त कर्म का प्रभाव पड़ता है। दूसरी बात यह है कि कर्म के सम्बन्ध से संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त भी है । कर्म-सम्बन्ध १ कर्म विपाक भूमिका, पृष्ठ २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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