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________________ ४०० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा बहिरात्मा के भी द्रव्य संग्रह की टीका में तीन भेद किये गये हैं-१. तीव्र बहिरात्मा-प्रथम मिथ्यात्ब गुण स्थानवर्ती आत्मा, २. मध्यम बहिरात्मा -द्वितीय सासादन गुणस्थानवर्ती आत्मा, ३. मंद बहिरात्मा -तृतीय मिश्र गुणस्थानवर्ती आत्मा। बहिरात्मा मिथ्यात्वी होता है, उसे स्व-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। मिथ्यात्व के कारण ही उसकी प्रवृत्ति अशुभ की ओर होती है । तथागत बुद्ध ने भी कहा है कि मिथ्यात्व ही अशुभाचरण का कारण है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी यही भाव इस रूप में व्यक्त किया गया है-रजोगुण से समुद्भव काम ही ज्ञान को आवृत कर, व्यक्ति को बलात् पाप की ओर प्रेरित करता है। मिथ्यात्व से यथार्थ का बोध नहीं होता। मिथ्यात्व एक ऐसा रंगीन चश्मा है, जो वस्तु-तत्त्व का अयथार्थ भ्रान्त रूप प्रस्तुत करता है । अज्ञान, अविद्या और मोह के कारण ही जीव इस स्वरूप में रहता है। मिथ्यात्व के अभाव से जब अन्तर्हृदय में सम्यक्त्व का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है, तब जीव, आत्मा और शरीर के भेद समझने लगता है। और बाह्य पदार्थों से वह ममत्व बुद्धि हटाकर अपने सही स्वरूप की ओर उन्मुख हो जाता है। अन्तरात्मा देहात्मबुद्धि से रहित होता है। वह भेद-विज्ञान से स्व और पर की भिन्नता को समझ लेता है। आत्म-गुण के विकास की दृष्टि से नियमसार की तात्पर्य वत्ति टीका में अन्तरात्मा के भी तीन भेद किये हैं:-१. जघन्य अन्तरात्मा- अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवी आत्मा, २. मध्यम आत्मा-पाँचवें गुणस्थान से उपशान्त मोह गूणस्थानवी तक के जीव इस श्रेणी में आते हैं, ३. उत्कृष्ट अन्तरात्मा -बारहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा इस श्रेणी में आते हैं। कर्ममल से मुक्त राग-द्वेष विजेता, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आत्मा ही पर. मात्मा है । शुद्धात्मा को परमात्मा कहा गया है। परमात्मा के अर्हन्त और सिद्ध-ये दो भेद किये गये हैं तथा सकल परमात्मा और विकल परमात्मा १ इसिभासियाई सुत्त, २१/३ २ अंगुत्तर निकाय १/१७ ३ श्रीमद्भगवद्गीता ३/३६ । ४ मोक्खपाहुड़ ५/8 ५ नियमसार, तात्पर्यवृत्ति टीका, गाथा १४६ ६ कातिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९७ ७ (क) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९६ (ख) द्रव्य संग्रह टीका, गापा १४१ ८ सत्यशासन परीक्षा का० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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