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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३६६ कर लेती हैं। यह शक्ति जिन जीवों में होती हैं-वे भव्यात्मा कहलाते हैं। इसके विपरीत अभव्य आत्मा होती है। वे 'मूंग शैलिक' जो कभो नहीं सीझता, उसी तरह अभव्य जीव को देव, गुरु, धर्म का निमित्त मिलने पर भी, वह मूक्ति को वरण नहीं कर पाता। वह सदा-सर्वदा-संसार में ही परिभ्रमण करता है। अध्यात्म की दृष्टि से आत्मा के तीन भेद किए गये हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। ये आत्मा के तीन भेद आगम साहित्य में तो नहीं आये हैं, पर आचार्य कुन्दकुन्द', पूज्यपाद, योगेन्दु, शुभचन्द्र आचार्य, स्दामी कार्तिकेय, अमृतचन्द्र', गुणभद्र, अमितगति, देवसेन और ब्रह्मसेन10 प्रभृति मूर्धन्य मनीषियों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उपर्युक्त तीन आत्माओं का उल्लेख किया है। तीन आत्माओं की चर्चा प्राचीन जैन साहित्य में इस रूप में न होकर अन्य रूप में उपलब्ध है। यह सत्य है कि बहिरात्मा और अन्तरात्मा जैसी शब्दावली आचारांग सूत्र में प्रयुक्त नहीं है, तो भी, उनका लक्षण और विवेचन वहाँ पर किया गया है। जो आत्माएँ बहिर्मुखी हैं, उनके लिए बाल, मन्द और मूढ़ शब्द का प्रयोग किया गया है। वे ममता से मुग्ध होकर बाह्य विषयों में रस लेती हैं। जो आत्माएँ अन्तर्मुखी हैं, उनके लिए पण्डित, मेधावी, धीर, सम्यक्त्वदर्शी और अनन्यदर्शी प्रभत्ति शब्द व्यवहृत हुए हैं। पाप से मुक्त होकर सम्यग्दर्शी होना ही अन्तरात्मा का स्वरूप है। मुक्त आत्मा को आचारांग में विमुक्त, पारगामो, तर्क तथा वाणी से अगम्य बतलाया गया है। जो आत्मा अज्ञान के कारण अपने सही स्वरूप को भूलकर आत्मा से पृथक् शरीर, इन्द्रिय, मन, स्त्री, पुरुष, धन आदि पर-पदार्थों में अपनत्व का आरोपण कर उनके भोगों में आसक्त बनी रहती है, वह बहिरात्मा है। १ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ५५६ (ख) ज्ञानार्णव ६/२०/६/२२ २ मोक्ष पाहुड़, गाथा ४ ३ समाधि शतक, पद्य ४ ४ (क) परमात्म प्रकाश १/११-१२ (ख) योगसार, ६ ५ जानार्णव, ३२/५ ६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९२ ७ पुरुषार्थसिद्ध युपाय ८ आत्मानुशासन ६ ज्ञानसार, गाथा २६ १० द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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