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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय अवस्था को भी इस जीवात्मा ने अनन्त बार प्राप्त किया है । पंचेन्द्रिय में वह नरक, तियंच, मनुष्य और देव योनियों को प्राप्त हुआ तथा वहाँ पर उसे मन की भो उपलब्धि हुई जिससे वह संज्ञी कहलाया। तिर्यंच गति में भी उसने अनेक कष्ट सहन किये । वह जीव वहाँ पर भयंकर शीत, ताप, क्षुधा और प्यास को सहन करता रहा, उस पर भयंकर ताड़ना और तर्जना पड़ी । परवशता में आत्मा ने वे दुःख और कष्ट सहन किये । नरक तो दुःखों का आगार है ही। केशववर्णी ने गोम्मटसार की जीव प्रबोधिनी टीका में स्पष्ट रूप से लिखा है-प्राणियों को दुखित करने वाला, स्वभाव से च्युत करने वाला, नरक कर्म है । और, इस कर्म के कारण उत्पन्न होने वाले जीव नारकीय कहलाते हैं। नारकीय जीवों को अत्यधिक दुःख सहन करने पड़ते हैं। भगवती आदि आगम साहित्य में वर्णन है कि नारकीय जीवों को अतीव दारुण वेदनार्थ भोगनी पड़ती हैं । क्षेत्रकृत और देवकृत, दोनों ही प्रकार की नारकीय वेदनायें सहन करनी पड़ती हैं । ये वेदनायें इतनी भयंकर होती हैं कि उन्हें सहन करते समय प्राणी छटपटाता है, करुण क्रन्दन करता है । ये सारी वेदनायें जीव ने एक बार नहीं, अनन्त अनन्त बार भोगी हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में कलम के धनी आचार्य ने जो वेदना का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है, वह बड़ा ही अद्भुत है, अनूठा है । इस जीव की जो यात्रायें विविध योनियों में हुई, उसका मूल कारण, कर्म है । कर्म राजा ने ही जीव को परतन्त्रता की बेड़ियों में बांध रखा है।
शुद्धि और अशुद्धि की दृष्टि से संसारी आत्मा के दो भेद हैं-एक भव्यात्मा और दूसरी अभव्यात्मा। जिस आत्मा में मोक्ष प्राप्त करने की शक्ति है, वह भव्यात्मा है, जैसे जो मंग सीझने योग्य हैं, उन्हें अग्नि आदि का अनुकूल साधन मिलने पर सीझ जाते हैं । उसी तरह जो आत्मायें मुक्त होने की योग्यता रखती हैं उन्हें सम्यग्दर्शन आदि निमित्त सामग्री के मिलने पर, वे कर्मों को पूर्ण रूप से नष्ट कर शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त
१ (क) नरान् प्राणिनः, कायति यातयति, कदर्थयति, खलीकरोति, बाधत इति नरकं कर्म तस्यापत्यानि नारकाः ।
---गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा १४१ (ख) धवला १/१/१२४
२ तत्त्वार्थ वार्तिक २/५०३
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