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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ४०१
- ये दो भेद भी किए गए हैं। बृहद् नयचक्र में परमात्मा के कारणपरमात्मा और कार्य - परमात्मा ये दो भेद किए गए हैं । अर्हन्त सकल-परमात्मा और कारण - परमात्मा के नाम से पहचाने जाते हैं, तो सिद्ध विकल परमात्मा और कार्य - परमात्मा के नाम से जाने जाते । अन्य भारतीय दर्शनों में आत्मा के ये तोन रू उल्लिखित नहीं हैं, पर इससे मिलताजुलता रूप हम कठोपनिषद् में देखते हैं। वहाँ पर आत्मा के ज्ञानात्मा, महदात्मा और शान्तात्मा, ये तीन भेद किये गये हैं ।" छान्दोग्योपनिषद् के आधार पर डायसन ने आत्मा की तीन अवस्थाएँ बनाईं हैं- शरीरात्मा जीवात्मा और परमात्मा" । इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से साम्य देखा जा सकता है । बहिरात्मा से परमात्मा तक पहुँचने के लिए एक बहुत लम्बी यात्रा तय करनी पड़ती है । उस यात्रा में अनेक बाधाएँ समय - समय पर समुत्पन्न होती हैं- कभी उसे मिथ्यात्व रोकता है, तो कभी उसे कषाय और राग-द्व ेष आगे बढ़ने में रुकावट डालते हैं । बहिरात्मा उनमें उलझ जाता है | दर्शनमोहनीयकर्म के कारण जीव अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय और अधर्म को धर्म मानता है । जैन दृष्टि से आत्मा के स्वगुणों और यथार्थं स्वरूप को आवरण करने वाले कर्मों में मोह का आवरण ही मुख्य है । मोह का आवरण हटते ही शेष आवरण सहज रूप से हटाये जा सकते हैं । जिसके कारण कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का भान नहीं होता, उसे दर्शनमोह कहते हैं और जिसके कारण आत्मा स्वस्वरूप में स्थित होने का प्रयास नहीं करता, वह चारित्रमोह है । दर्शन मोह से विवेक बुद्धिकुण्ठित होती है तो चारित्रमोह से सद्प्रवृत्ति कुण्ठित होती है । अतः आध्यात्मिक विकास के लिये दो कार्य आवश्यक हैं- पहला, स्व-स्वरूप और पर स्वरूप का यथार्थ विवेक, और दूसरा है - स्व-स्वरूप
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अस्थति | आत्मा को स्व-स्वरूप के लाभ हेतु और आध्यात्मिक आदर्श की उपलब्धि के लिये दर्शनमोह, चारित्रमोह पर विजय वैजयन्ती फहरानी होती है । इस विजय यात्रा में उसे सदैव जय प्राप्त नहीं होती, वह अनेक बार पतनोन्मुख हो जाता है । उसी का चित्रण आचार्य सिद्धर्षि ने बड़ी खूबी के साथ उपस्थित किया है । जो भी साधक विजय यात्रा के लिये प्रस्थित होता है, उसे विजय और पराजय का सामना करना ही पड़ता है ।
१ कठोपनिषद् १ / ३ /१३
२ परमात्मप्रकाश की अंग्रेजी प्रस्तावना (आ० ने० उपाध्ये) पृष्ठ ३१
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