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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३८५ व्यता के योग से, बार-बार नये-नये रूप धारण करते हैं। अरहट घटी को तरह, ऊपर-नीचे घूमते रहते हैं । और, यहाँ पर वे सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीव-रूप धारण करते हैं। कई बार, वे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेइन्द्रिय, जलचर, स्थलचर, और नभवर तिर्यंचों का रूप धारण करते हैं। इस प्रकार नानाविध विचित्र रूपों में अनेक स्थानों पर भटकते हुए जीव को महान् कठिनता से, मनुष्य भव मिलता है। जैसे समुद्र में डूबते हुए रत्नद्वीप मिल जाये, महारोग से जर्जरित को महोषधि, विषमूच्छित को मंत्रज्ञाता, दरिद्री को चिन्तामणि की प्राप्ति जितनी कठिन होती है, वैसी ही कठिनाई से मनुष्यभव की प्राप्ति होती है। किन्तु मनुष्यभव में भी हिंसा, क्रोध, आदि दुर्गुण इस तरह पीछे पड़े रहते हैं, जैसे धन के भण्डार पर बैताल पीछे पड़ा रहता है। इन सबसे, वह पीड़ित होकर, महामोह की प्रगाढ़ निद्रा में पड़ा रह जाता हैं और अपने मनुष्यभव को निरर्थक खो देता है । जो व्यक्ति जिनवाणो रूप प्रदीप के द्वारा अनन्त भव-प्रपञ्च को भलीभांति जानते हैं, वे भी महामोह के वशीभूत होकर मूखों की तरह दूसरों को उपताप, सन्ताप देते हैं, गर्व में डूब जाते हैं, दूसरों को ठगते हैं, धनलिप्सा में डूबे रहते हैं, प्राणियों की हिंसा करते हैं, विषयभोगों में आसक्त रहते हैं, वे सबके सब भाग्यहीन प्राणी हैं। ऐसे व्यक्तियों को भी, मनुष्य भव, मोक्ष तक पहुँचाने का कारण नहीं बन पाता, बल्कि अनन्त दुःखों से भरपूर भव-प्रपञ्च (संसार-परम्परा) की वृद्धि कराने वाला हो जाता है ! इस भव-प्रपञ्च विस्तार के नमूनों के रूप में, पूरी 'उपमिति-भवप्रपञ्च कथा' में से किसी भी एक कथानक को पढ़ा जा सकता है, और समझा जा सकता है । सहज और सरल तरीके से, संक्षेप में ज्ञान करने के लिए, इस ग्रन्थ के आठवें प्रस्ताव में, शंखनगर के महाराजा महागिरि, और उनकी रानी भद्रा के बेटे 'सिंह' का कथानक पढ़ा जा सकता है। १ उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा-प्रस्ताव-३ पृष्ठ २७६-८६ २ उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा-प्रस्ताव ८, पृष्ठ ७२८-७३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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