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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
इस संसार में चार प्रकार के पुरुष होते हैं। ये हैं-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट और उत्कृष्टतम । इनका स्वरूप इस तरह से समझना चाहिए ।
उत्कृष्टतम प्राणी वे हैं -जो संसार अटवी से विरक्त होकर, पापरहित होकर, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके समस्त कर्मों का नाश करते हैं और मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। उत्कृष्ट प्राणी वे हैं-जो विगतस्पृह होकर, अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण रखते हैं, दोषों का संचय नहीं करते, शरीर का और इसके हर अंग का उपयोग धर्म की आराधना में करते हैं, और मोक्षमार्ग की ओर प्रयाण करते हैं। मध्यम पुरुष वे हैं जो अपनी इन्द्रियों की प्रवृत्ति को सहज रूप में बनाए रखते हैं, उनके विषय-भोगों में आसक्ति नहीं रखते, और कषाय आदि के दुष्प्रभाव में होने पर भी लोक विरुद्ध, नीति-विरुद्ध, धर्म-विरुद्ध आचरण नहीं करते । और जघन्य पुरुष वे हैं-जो इस संसार में, संसार के विषयभोगों में गाढ़ आसक्ति रखते हुए अपनी इन्द्रियों की ओर अन्तःकरणों की प्रवृत्ति बनाये रखते हैं।
इनमें से, उत्कृष्टतम कोटि के पुरुष, मुक्ति को प्राप्त होते हैं। उत्कृष्ट पुरुष, मुक्ति पाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते हैं । मध्यम पुरुष, न तो मुक्ति के लिए चेष्टा करते हैं और न ही कर्मबन्ध के अनुकूल परि. णाम देने वाले कार्यों में विशेष रुचि रखते हैं। जबकि अधम पुरुष, हर क्षण, इस तरह के क्रिया-कलापों में संलग्न रहता है, जिनके द्वारा उसके भवप्रपञ्च का विकास/विस्तार ही होगा। एक तरह से, ऐसे ही व्यक्तियों को लक्ष्य करके, यह कथा-ग्रंथ सिद्धर्षि ने लिखा है, ताकि वे इसे उपयोग कर सकें।
वस्तुतः कोई भी व्यक्ति, जन्म से उत्कृष्ट, मध्यम या अधम नहीं होता। उसके अपने पिछले जन्मों के कर्मबन्ध, संस्कार बनकर उसके साथ पैदा अवश्य होते हैं, तथापि जन्म ग्रहण कर लेने के बाद बहुत कुछ इस बात पर व्यक्ति के आगे का भव-प्रपञ्च निर्भर करता है कि उसने वर्तमान मनुष्य भव में क्या, कुछ, कैसा किया । और, यह एक अनुभूत सत्य है कि व्यक्ति जैसे परिवेष में रहेगा, जिस तरह के समाज में उठेगा-बैठेगा, उस सबका प्रभाव उस पर निश्चित ही पड़ेगा। इस तथ्य से, ग्रन्थकार भलोभांति परिचित रहे । फलतः इस स्थिति की उन्होंने आध्यात्मिक/धार्मिक मनोवैज्ञानिक/वैज्ञानिक तरीके से जो व्याख्या की है, वह बहुत कुछ इन शब्दों में समझी जा सकती है।
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