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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
दोनों का सुन्दर मिश्रण हुआ है । संवाद बड़े ही दिलचस्प हैं और साथ ही अलंकृत पदों की रमणीयता से युक्त हैं । इसका रचनाकाल शक सं० ७०० में एक दिन न्यून है ।'
समराइच्चकहा और कुवलयमाला की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए शीलांकाचार्य ने चउपन्न महापुरिसचरिय की रचना की है। इसमें जैनधर्म के चौवन महापुरुषों के जन्म-जन्मान्तर की कथाएँ गुम्फित की गई हैं । जैन धर्म में महापुरुषों की संख्या तिरसठ कही गई है। लेकिन शीलांकाचार्य ने उस परम्परा से अलग यह संख्या चौवन मानी है । पुनः इन महापुरुषों में से कुछ प्रमुख महापुरुषों का जीवन चरित्र सम्यक्रूप से वर्णित मिलता है, जिनमें मुख्य कथा के साथ अवान्तर कथाओं का कौशलपूर्वक संयोजन किया गया है । यह कथा ग्रंथ शुभ-अशुभ कर्मबन्ध के परिणाम को प्रतिपादित करने वाली एक धर्मकथा है ।
सुरसुन्दरी चरित्र के रचयिता धनेश्वर सूरि ने लीलावईवहा के रचयिता कौतुहल के मार्ग का अनुसरण किया है । ग्रंथ की चार हजार गाथाओं में जैनधर्म के सिद्धान्तों के निरूपण की आधारशिला पर प्रेमकथा का प्रस्तुतिकरण विशेष महत्व रखता है । धनेश्वरसूरि को काम भावना के साथ-साथ धर्मभावना के निरूपण में तो सफलता मिलती ही है, पात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास एवं उनकी मानवीय प्रवृत्तियों के सम्यक् निरूपण में भी अद्भुत सफलता मिली है ।
संवेगरंगशाला जिनचन्द्र रचित रूपक कथा है । संवेग भाव के निरूपण हेतु अनेक कथाएँ इसमें गुम्फित की गई हैं । 2 जिनदत्ताख्यान की कथा का प्रणयन आचार्य सुमतिसूरि ने किया है । कथा अत्यन्त रसप्रद है । इसमें जीवन के आनन्द और विषाद का, सुन्दरता और कुरूपता का, शक्ति और दुर्बलता का, जीवन के विविध पक्षों का मार्मिक चित्रण किया गया है । नायक का चरित्र, उदारता, सहृदयता और निष्पक्षता का प्रतीक है ।
महेश्वरसूरि ने ज्ञानपंचमीकथा में श्र ुतपंचमीव्रत का माहात्म्य बताने के लिये दस कथाओं का सृजन किया है । इन कथाओं में प्रथम जयसेन
१. दुवलयमाला, पृष्ठ २८२, अनुवाद ४३० ।
२. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डा० नेमीचन्द्र शास्त्री,
पृष्ठ ४८६-४८८ ।
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