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________________ प्राकृत जैन कथा साहित्य २३ विमलसूरि का पउमचरियं और हरिवंसचरियं, शीलांकाचार्य का चउप्पण्ण महापुरिसचरियं, गुगपालमुनि का जम्बूरियं, धनेश्वर का सुरसुन्दरीचरियं, नेमिचन्द्र का रयणचूडरायचरियं, गुणचन्द्रगणि का पासनाहचरियं और महावीरचरिय, देवेन्द्रसूरि का सुदंसणचरिय और कण्हचरिय, मानतुंगसूरि का जयन्ती प्रकरण, चन्द्रप्रभमहत्तरि का चन्दकेवलीचरिय, देवचन्द्रसूरि का संतिनाहचरिय, शान्तिसूरि का पुहवीचन्दचरिय, मलधारी हेमचन्द्र का नेमिनाहचरिय, श्रीचन्द्र का मुणिसुव्वयसामिचरिय, देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्रीचन्द्र सूरि का सणंकुमारचरिय, सोमप्रभसूरि का सुमतिनाह चरिय, नेमिचन्द्रसूरि का अनन्तनाहचरिय एवं रत्नप्रभ का नेमिनाहचरिय प्रसिद्ध चरितात्मक काव्यग्रन्थ हैं। इनमें कथा और आख्यानिका का अपूर्व संमिश्रण हुआ है। इनमें बुद्धि माहात्म्य, लौकिक आचार-विचार, सामाजिक परिस्थिति और राजनैतिक वातावरण का सुन्दर चित्रण हुआ है। इन चरित ग्रंथों में “कथारस" की अपेक्षा 'चरित' की ही प्रधानता है। प्राकृत साहित्य में विशुद्ध कथा साहित्य का प्रारम्भ तरंगवती से होता है। विक्रम की तीसरी शती में पादलिप्त सूरि ने प्रस्तुत कथा का प्रणयन किया। तरंगवती का अपर नाम तरंगलोला भी है। यह कथा उत्तम पुरुष में वर्णित है । करुण, शृंगार और शांतरस की त्रिवेणी इसमें एक साथ प्रवाहित हुई है। इसी प्रकार की दूसरी कृति आचार्य हरिभद्र की समराइच्च कहा है। इस कथा में प्रतिशोध-भावना का बड़ा ही हृदयग्राही चित्रण किया गया है । अग्निशर्मा के मन में तीव्र पणा की भावना जागृत होती है और वह गुणसेन के प्रति निदान करता है । वह निदान नौ भवों तक चलता है। नायक की भावना उत्तरोत्तर विशुद्ध से विशुद्धत र होती जाती है और प्रतिनायक की भावना अविशुद्ध । नायक विशुद्ध भावना से मुक्ति को वरण करता है और प्रतिनायक जन्ममरण की अभिवृद्धि करता है । कथा का गठन सुन्दर व कुतुहलपूर्ण है । धूख्यिान भी हरिभद्रसूरि की एक अन्य महत्वपूर्ण कृति है। भारतीय कथा साहित्य में लाक्षणिक शैली में लिखी गई इस कृति का स्थान मूर्धन्य है। इस प्रकार की व्यंगप्रधान अन्य रचनाएँ दृष्टिगोचर नहीं होती। कुवलयमाला हरिभद्रसूरि के शिष्य उद्योतन सूरि के द्वारा रचित है। क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह इन विकारों का दुष्परिणाम बतलाने के लिए अनेक अवान्तर कथाओं के द्वारा विषय का निरूपण किया गया है। कदलीस्तम्भ सदृश कथाजाल संगठित है। कथारस और काव्यात्मकता १. मरुधरकेसरी अभिनंदन ग्रन्थ, खण्ड ४, पृष्ठ १६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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