SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३६६ शाखा के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । उस नाटक के दूसरे अंक में आहेत्, बौद्ध, सांख्य, अक्षपाद, सौत्रान्तिक, योगाचार, वैभाषिक, माध्यमिक आदि के मतों का खण्डन करके उनका उपहास भी उड़ाया गया है। तीर्थों के दोषों का उद्घाटन करके, उन्हें अयुक्त सिद्ध किया गया है । और, 'हृदयगुहा' को ही समाधि के लिए नाटककार ने उपयुक्त बतलाया है। . श्री जयशेखरसूरि का 'प्रबोध-चिन्तामणि' भी रूपक शैली का महत्वपूर्ण प्रबन्ध है। इसकी कथा वस्तु का आधार-भगवान पद्मनाभ के शिष्य धर्मत्रि द्वारा प्ररूपित आत्मस्वरूप का चित्रण है। इसकी रचना, स्तम्भनक नरेश की राजधानी में विक्रम सम्वत् १४६२ में की गई। इसके पहिले अधिकार में, परमात्मस्वरूप का चित्रण, और दूसरे में भगवान पद्मनाभ का चरित्र, तथा मुनि धर्मरुचि का चरित्र वर्णित है। तीसरे अधिकार में मोह और विवेक की उत्पत्ति दिखला कर, मोह को राज्य प्राप्त कराया गया है। चौथे अधिकार में संयमश्री के साथ विवेक का पाणिग्रहण होने के बाद, उसकी राज्य-प्राप्ति का निरूपण किया गया है। पांचवें में, काम की दिग्विजय का वर्णन है । छठवें अधिकार में कलिकृत प्रभाव का निरूपण है। इसी प्रसंग में, सामाजिक दुर्दशा का चित्रण, मार्मिक और यथार्थ रूप में किया गया है। इसी सन्दर्भ में, ग्रन्थकार को उक्ति -'भगवान महावीर की सन्तान होने पर भी, आज के साधु विभिन्न गच्छों में विभक्त हैं और पारस्पारिक सौहार्द के बजाय वे एक-दूसरे के शत्रु बने हुये हैं, बहुत ही मर्मस्पर्शी है। जयशेखरसूरि की की यह वेदना भरी टीस, आज तक, ज्यों की त्यों बरकरार है। प्रो० राजकुमार जैन ने, 'मदन-पराजय' (सं०) की प्रस्तावना में १ बोध-चिन्तामणि-२/१० । २ यमरसभुवनमिताब्दे स्तम्भनकाधीशभूषिते नगरे । श्री जयशेखरसूरि प्रबोधचिन्तामणिमकार्षीत् ॥ -प्रबोध-चिन्तामणि-प्रस्तावना । ३ एकश्रीवीरमूलत्वात् सौहृदस्योचितैरपि । सापत्न्यं धारितं तेन पृथग्गच्छोयसाधुभिः ।। ---प्रबोध चिन्तामणि-६/८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy