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३६८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
शैली पर लिखी गई महत्वपूर्ण कृति है । इसके प्रणेता, चंगदेव के पुत्र हरदेव हैं । इसका रचनाकाल यद्यपि सुनिश्चित नहीं हो पाया, तथापि, इसकी रचना यशपाल की कृति 'मोहराज पराजय' से पहले की जा चुकी थी । नागदेव रचित 'मदनपराजय' (संस्कृत) इसी प्राकृत रचना के आधार पर लिखी गई है ।
'मोहराज पराजय' नाटक ', यशपाल की महत्वपूर्ण रचना है । यशपाल, चक्रवर्ती अभयदेव का राज्य कर्मचारी था । अभयदेव ने १२२० से १२३२ ई. तक राज्य किया था । धारापद के कुमारविहार में, यह नाटक अभिनीत भी हुआ था । इसके प्रथम अंक में, मोहराज, राजा विवेकचन्द के मानस नगर को घेर कर आक्रमण कर देता है । फलतः विवेकचन्द, अपनी पत्नी शान्ति और पुत्री कृपासुन्दरी के साथ निकल भागता है । पंचम अंक में, मोहराज को पराजित कर पुनः विवेकचन्द सिंहासनासीन होते हैं । नाटक में, ऐतिहासिक नामों के साथ लाक्षणिक चरित्रों के सम्मि श्रण में, और मोहराज पराजय की वर्णना में, नाटककार की कुशलता और निपुणता, दोनों ही दर्शनीय बन पड़ी हैं। गुणों की दृष्टि से भी नाटक का विशेष महत्व है । ग्रन्थकर्ता यशपाल, राजा अभयदेव के मन्त्री धनदेव और रुक्मिणीदेवी के पुत्र थे । ये, जाति से मोड़ वैश्य थे ।
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इसी से मिलता-जुलता एक और नाटक मेरुतुंगसूरि की 'प्रबन्ध - चिन्तामणि' के परिशिष्ट भाग में पाया जाता है । इसकी रचना, वैशाख शुक्ला पूर्णिमा, वि० सं० १३६१ को पूर्ण हुई थी महाराजा कुमारपाल द्वारा, आचार्य हेमचन्द्र के निकट जैन श्रावक व्रत ग्रहण कर अहिंसा व्रत अंगीकार करने के दृश्य को लक्ष्य कर, इसकी रचना की गई । मोहराज - पराजय के दूसरे, तीसरे व चौथे अंकों में वर्णित कथावस्तु से, प्रबन्धचिन्तामणि की कथावस्तु में कुछ बदले हुए नामों के अलावा, अधिक अन्तर प्रतीत नहीं होता ।
चौदहवीं शताब्दी की रचना 'संकल्पसूर्योदय" वेदान्तदेशिक की कृति है । इसमें दस अंक हैं । रूपककार ने, इसमें वेदान्त की विशिष्टाद्व ेत
९ गायकवाड़ सीरीज, बड़ौदा से प्रकाशित ।
२ आर० कृष्णामाचारी मदुरा द्वारा सम्पादित एवं एच० एम० बागुली द्वारा मेडिकल हाल प्रेस वाराणसी से प्रकाशित ।
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