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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३६७
महोबा के निकट 'कीर्तिसागर' नाम का तालाब इसी के द्वारा बनवाया हुआ है । देवगढ़ में भी इसका एक शिलालेख (ई. १०६३ ) मिलता है । खजुराहो के लक्ष्मीनाथ मन्दिर का एक शिलालेख (११६१ ई.) कीर्तिवर्मा केही समय का है । जिसे इसके मन्त्री वत्सराज ने खुदवाया था । कीर्ति - वर्मा राजा विजयपाल का पुत्र था और अपने अग्रज देववर्मा के पश्चात् सिंहासनारूढ़ हुआ था । इसका राज्य पर्याप्त विस्तृत भू-भाग पर बहुत वर्षों तक रहा। इन तमाम साक्ष्यों के बल पर कीर्तिवर्मा का काल ग्यारहवीं शताब्दी ( ई.) का ठहरता है । यही समय, प्रबोध-चन्द्रोदय का रचना काल है ।
मोह के शिकंजे में जकड़ा व्यक्ति, अपने यथार्थ स्वरूप के ज्ञान से विमुख हो जाता है । और जब उसका विवेक जागता है, तब मोह पराजित हो जाता है । इसी के बाद व्यक्ति को शाश्वत ज्ञान प्राप्त होता है । 'विवेक के साथ उपनिषद् के अध्ययन और विष्णु भक्ति के आश्रय से ज्ञान चन्द्र का उदय होता है - इस मान्यता की विवेचना, प्रस्तुत नाटक में, युक्तिपूर्ण सौन्दर्य के साथ की गई है । द्वितीय अङ्क में, हास्य और दम्भ के वार्तालाप से, हास्य रस का सार्थक चित्रण किया गया है । जैन बौद्ध और सोम-सिद्धान्त के परस्पर वार्तालाप में स्फुटित हास्य-मिश्रित कौतूहल द्रष्टव्य है | श्रीकृष्ण मिश्र उपनिषदों के रहस्यवेत्ता रहे, तभी, उन्होंने अद्वैत वेदान्त और वैष्णव धर्म का जो समन्वय, इस नाटक में प्रस्तुत किया है; वह इसकी एक महनीय विशेषता है। कवित्व का चमत्कार भी इस नाटक में जमकर निखरा है । पात्रों की सजीवता प्रशंसनीय बनी है ।
हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य कवियों की रचनाओं पर 'प्रबोधचन्द्रोदय' का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। रामचरितमानस में, पञ्चवटी के वर्णन - प्रसंग में जो आध्यात्मिक रूपक योजना है, उसमें इस नाटक के पात्रों को भी अपनाया गया है । हिन्दी जगत के ही प्रसिद्ध कवि केशव ( १६वीं शती) ने 'विज्ञान गीता' नाम से इसका छन्दोबद्ध अनुवाद कर डाला । अध्यात्म विद्या और अद्वैतवाद जैसे शुष्क दार्शनिक विषय को भी नाटकीय और मनोरञ्जक शैली में प्रस्तुत करना, श्रीकृष्ण मिश्र के प्रयास की सर्वोत्तमता को असंदिग्ध बना देता है ।
अपभ्रंश प्राकृत की रचना 'मयणपराजयचरिउ, भी रूपकात्मक
१ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ।
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