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________________ भवत कथा, प्राकृत जैन कथा साहित्य २१ देशकथा और राजकथा के ये चार भेद और भी मिलते हैं । 1 जैन श्रमण के लिए विकथा करने का निषेध किया गया । जैसा कि मैं ऊपर बता आया हूँ उसे वही कथा करनी चाहिए जिसको श्रवणकर श्रोता के अन्तर्मानस में वैराग्य का पयोधि उछालें मारने लगे, विकार भावनाएँ नष्ट हों एवं संयम की भावनाएँ जागृत हों । तप-संयमरूपी सद्गुणों को धारण करने वाले, परमार्थी महापुरुषों की कथा, जो सम्पूर्ण जीवों का हित करने वाली है, वह धर्मकथा कहलाती है । पात्रों के आधार से दिव्य, मानुष और दिव्यमानुष, ये तीन भेद कथा के किए गए हैं। जिन कथाओं में दिव्यलोक में रहने वाले देवों के क्रिया-कलापों का चित्रण हो और उसी के आधार से कथावस्तु का निर्माण हो, वे दिव्य कथाएँ हैं । मानुष कथा के पात्र मानव-लोक में रहते हैं । उनके चरित्र में मानवता का पूर्ण सजीव चित्रण होता है । कथा के पात्र मानवता के प्रतिनिधि होते हैं । किसी-किसी मानुष कथा में ऐसे मनुष्यों का चित्रण भी होता है जिनका चरित्र उपादेय नहीं होता । दिव्य- मानुषी कथा अत्यन्त सुन्दर कथा होती है । कथानक का गुम्फन कलात्मक होता है । चरित्र और घटना तथा परिस्थितियों का विशद व मार्मिक चित्रण, हास्य-व्यंग आदि मनोविनोद, सौन्दर्य के विभिन्न रूप, इस कथा में एक साथ रहते हैं । इसमें देव और मनुष्य के चरित्र का मिश्रित वर्णन होता है । शैली की दृष्टि से सकलकथा, खण्डकथा, उल्लापकथा, परिहासकथा और संकीर्ण कथा ये पाँच भेद किए गए हैं । सकल - १. पडिक्कमामि चउहि विकहाहिं — इत्यीकहाए, भत्त कहाए, देसकहाए, रायकहाए । - आवश्यक सूत्र । २. समणेण कहेयव्वा, तव नियमकहा विरागसंजुत्ता । जं सोऊण मणूसो, वच्चइ संवेगाणिव्वेयं ॥ - अभिधान राजेन्द्र कोष भा० ३ पृष्ठ ४०२ गाथा २१६ । ३. तवसंजमगुणधारी चरणरया कहिति सम्भावं । सब्वजगजीवहियं सा उ कहा देसिया समए || - अभिधान राजेन्द्र कोष गा० २१६, पृष्ठ ४०२, भाग ३ | ४. ( क ) दिव्व, दिव्वमाणुसं, माणुसं च । तत्थ दिव्ब नाम जत्थ केवलमेव देवचरियं वणिज्जइ । -- समराइच्चकहा - याकोबी संस्करण - पृष्ठ २ । (ख) तं जहा दिव्व - माणुसी तहच्चेय । - लीलावई गा० ३५ । (ग) लीलावई गा० ४१, पृष्ठ ११ । ५. ताओ पुण पंचकहाओ । तं जहा - सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहास - कहा, तहावरा कहियत्त संकिण्ण कहति । - कुवलयमाला पृ० ४, अनुच्छेद ७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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