SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३५१ श्वेताम्बर परम्परा के आगमोत्तरवर्ती आख्यान साहित्य से जुड़े पउमचरिय (विमलसूरि), सुपार्श्वचरित (लक्ष्मणगणि), महावीर चरिय (गुणभद्र), तरंगवती, वसुदेव-हिण्डी, समराइच्चकहा (हरिभद्र), हरिवंश, प्रभावकचरित, परिशिष्टपर्व, प्रबन्ध चिन्तामणि और तीर्थकल्प आदि अनेकों ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनमें धर्म, शील, पुण्य, पाप और संयम एवं तप के सूक्ष्म-रहस्यों की विवेचना की गई है । जिनमें, मानवीय जीवन और प्राकृतिक विभूति के समग्र चित्र उज्ज्वलता और निपुणता के परिवेश में प्रस्तुत किये गये हैं। दिगम्बर परम्परा, श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध अङ्ग साहित्य को स्वीकार नहीं करती। इसकी मान्यता है कि द्वादशाङ्ग साहित्य लुप्त हो चुका है। उसका जो कुछ भाग शेष बचा है, वह 'षटखण्डागम', 'कषायपाहड' और 'महाबन्ध' जैसे उपलब्ध ग्रन्थों में सुरक्षित है। फिर भी, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि ग्रंथों से यह ज्ञात होता है कि दिगम्बर परम्परा के अङ्ग-साहित्य में भी अनेक आख्यान पाये जाते थे। वस्तुतः, दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों ही परम्पराओं में मान्य आगमों के नाम लगभग एक जैसे ही हैं । जो कुछ थोड़ा-बहत अन्तर परम्परा भेद से परिलक्षित होता है. उसका कोई ऐसा महत्व नहीं है. जिसका दुष्प्रभाव, मौलिक मान्यताओं पर अपनी छाप डाल पाता हो। उपलब्ध दिगम्बर साहित्य में आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं का विशिष्ट स्थान है। इनमें ढेर सारे कथानक, आख्यान और चरित मिलते हैं । भावना की उपयोगिता, साधना के क्षेत्र में कितनी महत्वपूर्ण है । इस का बहमुखी परिचय, "भावपाहुड' का अध्ययन करने से स्वतः मिल जाता है। निस्संग हो जाने पर भी, 'मान' कषाय की उपस्थिति के कारण बाहुबलि के चित्त पर कालुष्य बना ही रहा', अपरिग्रही मुनि मधुपिंग को 'निदान' के कारण द्रव्यलिङ्गी बने रहना पड़ा, वशिष्ठ मुनि की भी दुर्दशा, इसी निदान के कारण, कुछ कम नहीं हुई। बाहुमुनि को, क्रोधाविष्ट होकर दण्डक राजा का नगर भस्म कर देने के परिणामस्वरूप रौरव नरक तक भोगना पड़ा, दीपायन को भी द्वारका नगरी भस्म करने के फलस्वरूप १. भावपाहुड गाथा ४४ ३. वही ४६ २. वही गाथा ४५ ४. वही , ४६ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy