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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३४५ वशिष्ठ का युद्ध आदि आख्यान, संस्कृत साहित्य के उत्कृष्ट एवं गरिमापूर्ण आख्यानों के रूप में स्वीकार किये जाते हैं।
इन दोनों महाग्रन्थों की भाव-भूमि को आधार मान कर, उत्तरवर्ती, आख्यान-साहित्य की विस्तृत सर्जनाएँ हुई हैं। 'मालती माधव' और 'मुद्रा राक्षस' जैसे कुछ एक कथानकों को छोड़कर, शेष समूचा संस्कृत साहित्य, इन दोनों आर्ष काव्यों के प्रभाव से अनछुआ नहीं रह पाया। रघुवंश, भट्टिकाव्य, रावणवहो और जानकीहरण जैसे महाकाव्यों ने रामायण की रसधारा में स्वयं को निमग्न कराया, तो किरातार्जुनीय, शिशुपालवध, और नैषधीयचरित जैसे उत्कृष्ट महाकाव्यों की पृष्ठभूमि में, महाभारत को ऊर्जस्विल भाव-लहरियाँ तरङ्गित होती स्पष्ट देखी जा सकतो हैं ।
मानवीय-जीवन, बालू के घर की तरह, शीघ्र ढह कर गिर जाने वाली वस्तु नहीं है । बल्कि, इसमें स्थायित्व है । ऐसा स्थायित्व, जो अपनी भौतिक सत्ता को विनष्ट कर चुकने के बाद भी, अपने बाद की मानवसन्तति को राह दिखा सकता है। किन्तु, यह तब सम्भव हो पाता है, जब व्यक्ति अपना जीवन उदात्तता, पर-दुःख कातरता, त्रस्त-पीड़ित-प्रताड़ित मानवता को शरण और सहकार-सम्बल करना, आदि महनीय शोभन गुणों से आपूरित बना लेता है। इन्हीं जैसे गुणों से, व्यक्ति के क्षणभंगुर जीवन में स्थायित्व और महनीयता समापित हो पाती है।
वाल्मीकि रामायण में, उन समस्त शोभन गुणों का सुन्दर-समन्वय, राम के आदर्श व्यक्तित्व में फलितार्थ किया गया है, जिससे, उनका जीवन, सिर्फ मृत्यु-पर्यन्त तक चलने वाला, साधारण आदमी के जीवन जैसा न रह पाया, वरन्, एक ऐसा चरित बन गया, जिसे आज भी, हर पल, हर-क्षण जीवन्त बना हुआ अनुभव किया जाता है।
___ महाभारत की सर्जना के मूल में भी, सिर्फ युद्धों की वर्णना करना ही महर्षि व्यास का लक्ष्य नहीं रहा, बल्कि उनका अभिप्राय, भौतिकजीवन की निस्सारता को प्रकट करके, मोक्ष के लिए प्राणियों में औत्सुक्य जगाना रहा है । इसीलिए, महाभारत का मुख्य-रस 'शान्त' है। वीररस तो उसका अंगीभूत बनकर आया है।
महाभारत, वस्तुतः एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है, जिससे, आधुनिक जगत् की हर-श्रेणी का व्यक्ति, अपना जीवन सुधारने की शिक्षा-सामग्री प्राप्त कर सकता है । कर्म, ज्ञान और भक्ति की सरस्वती प्रवाहित करने
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