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________________ ३४२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा जाये, बल्कि, ठीक से समझा जाये । क्योंकि इसका एक-एक अक्षर जीवन्त है, शब्द-शब्द की पोर-पोर में इक्ष रस जैसी मिठास भरी है । आवश्यकता है समझ की, अनुभूति की, और आनन्द लेने की चाह की । वीरता और कर्मप्रवणता भरे इन आख्यानों का प्रस्थान, जब स्ने. हिल धरातल का स्पर्श करता है, तब, एक वपूष्मान् (नर) और वपुषी (नारी) का गठबन्धन, मनु के नौ बन्धन पर होते देर नहीं लगती। इसी गठबन्धन से उभरती हैं वे श्रेष्ठ शालीनताएँ, जिनमें उषा, हस्रा (हसनशील वनिता) बन कर, अपने सम्पूर्ण संवृत प्रणय को अनावृत कर देती है। उषा के इसी अनावृत प्रणय-द्वार की देहलीज पर बैठकर, वैदिक जरन्त ऋषि मुनि-गण ने, प्रत्यङ मनस् से की गई तपस्याओं के बल पर, शाश्वत सत्य का साक्षात्कार किया है । वेदों ने इसे 'ऋत्' नाम से पुकारा है । इसी 'ऋत्' के आनन्द की मस्ती में झूमकर वह गा उठता हैसष्टि के पहिले क्या था ? न सत् था, न असत्, न धरती थी, न आकाश था !""मैं कौन हूँ ? कहाँ रो आया हूँ ?""इत्यादि । ऋग्वेद का यह ऐसा गान है, जिससे आगे, मानव का मस्तिष्क अब तक नहीं जा पाया । और, इन ऋग्वेदीय प्रश्नों के जो समाधान अब तक दिये गये हैं, उन्हें सोम पानोचा की रंगमयी भाव भङ्गिमा में, उसने स्वयं ही तलाश लिया था। और, तब, वह कह उठा था- 'मैं ही मनु था। सूर्य भी मैं ही था। कक्षीवान् ऋषि मैं ही था । आजु नेय कुत्स को मैंने ही दबाया था। उशना कवि मैं ही हैं। आर्य को पृथ्वी मैंने ही दी थी। मर्त्य के लिए वर्षा मैंने ही बनाई। कलकलायमान जलधाराओं को में ही बहाता हुँ। देवता तक, मेरे इशारे पर चलते आये हैं।' यह सूक्त, पुरुष/आत्मा के परमात्मत्व को जिन संकेतों/प्रतीकों के १. नासदासीनो सदासीत्तदानी नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् । किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ।। इत्यादि, -वही १०-१२६-१-७. २. अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षीवाँ ऋषिरस्मि विप्रः। अहं कुत्स्नमाजुनेयं न्यूजेऽहं कविरुशना पश्यता मा । अहं भूमिमदादमार्यायाहं वृष्टिं दाथुषे माय । अहमपो अनयं वावशाना मम देवासो अनु केत मायन् ।। -वही ४-२६-१-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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