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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३४१ ये, वे वर्षा गीत हैं, जिनमें, एक विलक्षण प्रतिभा प्रस्फुरित हो रही है। इस वर्षा में सांड है, सिंह है, और वह सब कुछ भी है, जिससे हमारा ऐन्द्रियत्व सहल उठता है, फिर स्वयं में, उसे आत्मसात् कर लेता है।
___ एक दूसरे स्थल पर, 'जीमूत' मेघ का उपमान रूप में प्रयोग; वैदिक वाङमय की साहित्यिकता और रूपकता को, एक ऐसी ऊँचाई तक पहुँचा देता है, जिस तक, शायद मेघ स्वयं न पहुँच सके। देखिये-'जब एक वीर योद्धा, कवच से सज-धज करके, रणाङ्गग में उपस्थित होता है, और अपने धनुष से बाणों की वर्षा कर शत्रुदल पर छा जाता है, तब, उसका चेहरा 'जीमूत' जैसा हो जाता है।"
सामान्य रूप से देखने/पढ़ने पर तो यह उपमान, बड़ा ही बेतुका, किंवा फीका सा लगता है, किन्तु, जब 'जीमूत' शब्द को व्युत्पत्ति समझ में
आ जाती है, तब, इस उपमान का चमत्कार, स्वतः ही सामने आ जाता है। जोमूत' शब्द बनता है-ज्या+/मोव (गति) से । अर्थात् ऐसा बादल 'जीमूत' कहा जायेगा, जिसमें बिजलो को प्रत्यञ्चा कौंध रही हो। एक सच्चा शूरवीर, जब शत्रुदल पर टूटता है, तब उसका चेहरा 'जोमूत' जैसा ही होता है। क्योंकि, बलपूर्वक पूर्ण श्रम से और धूलि-धूसरित होने के कारण, चेहरा कृष्णवर्ण हो जाता है । साथ ही, शत्रु दल पर धनुष से बाणों की जब वर्षा करता है, तब उसकी लहराती/लपलपाती प्रत्यञ्चा (ज्या), वर्षणशील मेघ में कौंध रही विद्य ल्लता जैसी, उस बहादुर वीर के चेहरे के सामने/आस-पास, क्षण-क्षण में कौंधती रहती है । अब, उक्त उपमान से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक ऋषि द्वारा प्रयुक्त यह उपमान, न तो फीका है, न ही बेतुका, बल्कि एक नये रूपक की सर्जना का द्योतक बन गया है।
ऋग्वेद का यह प्राञ्जल वर्णन, कितना सजीव है ? इसकी शब्द गरिमा और उससे ध्वनित अर्थ-गाम्भीर्य कितना विशद है, पेशल है ? इस विषय पर, बहुत कुछ लिखने से अच्छा होगा, इसके प्रयोग को समझा
रथीव कशयाश्वां अभिक्षिपन्नाविर्दूतान् कृणुते वा अह । दूरान् सिंहस्य स्तनथा उदीरते यत् पर्जन्यः पृथिवी रेतसावति ।।
-वही ५/८/३/१-३ १. वही ५-७५-१
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