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३३८.
जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
यम और यमी का परस्पर संवाद चलते-चलते ही, बीच में, यमी कामाग्नि संतप्त हो उठती है । तब, वह यम से कहती है-'हम दोनों को सष्टा ने, गर्भ में ही पति-पत्नी बना दिया था। उसने, जो त्वष्टा है, सविता है, और सभी रूपों में विराजमान है। इसके व्रतों को कौन तोडेगा? ओ यम ! हम दोनों के इस सम्बन्ध को पृथ्वी जानती है, और आकाश जानता है ।1
यमो के इस कथन का स्पष्ट आशय है-'योन-सम्बन्ध से पूर्व, सभी आपस में भाई-बहिन हैं। किन्तु, परम ऐकान्तिक उस रसमय-सम्बन्ध के स्फूर्त होते ही, अन्य सारे सम्बन्ध तिरोहित हो जाते हैं, दब जाते हैं, सिर्फ एक यही सम्बन्ध शेष रह जाता है, जिससे, जीवन की समग्रता रसाप्लावित हो उठती है। क्योंकि, नर-नारी की परिनिष्ठा इसी में है, जीवन का स्रोत यही है।"
किन्तु, ऋग्वेद का यह यम, यथार्थतः नर है, वह वस्तुतः शिव है। इसने अपने जीवन में संयम के फूल खिलाये हैं और निग्रह में ही विग्रह को अवसान दिलाया है। वह, यमी के उत्तर में कहता है-'ओ यमी ! उस प्रथम-दिवस को कौन जानता है ? किसने देखा है उसे ? उसे कौन बता सकेगा? वरुण का व्रत महान् है । मित्र का धाम प्रभूत है। ओ कुत्सित मार्ग पर चलने वाली यमी ! विपरीत कथन क्यों करती है ? प्रत्यक्षतः तो हम भाई-बहिन ही हैं। फिर, इस सम्बन्ध के बदलने की आवश्यकता भी तो नहीं है । क्योंकि, वरुण का यह आदेश है, मित्र का ऐसा व्रत है।
साहित्यिक रसात्मकता से परिपूर्ण, पुरुरवा और उर्वशी का संवाद भी, इसी मण्डल में मिलता है। सूक्त की शब्दावली दुरूह और कठिन अवश्य है, पर, उनसे व्यक्त होने वाले भाव, बेहद चुटीले हैं। पुरुरवा कहता
१ गर्भ नु नो जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः । नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथिवी उत द्यौः ।
-ऋग्वेद-१०/५/१० २ को अस्य वेद प्रथमस्याह्नः क हैं ददर्श क इह प्र वोचत् । वहन मित्रस्य वरुणस्य धाम कटु ब्रव आह नो वीच्या नन् ।
-वही १०/१०/७
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