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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३३७ महाभाष्यकार पतञ्जलि ने ऋग्वेद की इवकीस, यजुर्वेद की एक सौ, सामवेद की एक हजार, और अथर्ववेद की नौ, कुल मिलाकर एक हजार एक सौ शाखाओं का उल्लेख किया है। भारत का यह दुर्भाग्य है कि इनमें से अनेकों शाखाओं से सम्बन्धित साहित्य, आज तक विलुप्त हो चुका है । वैदिक साहित्य मूलतः धर्मप्रधान है । देवताओं को लक्ष्य करके यज्ञ आदि का विधान करके, उसमें जो कमनीय स्तुतियाँ सङ्कलित की गई हैं, वे, वैदिक साहित्य की एक विलक्षण विशेषता बन चुकी हैं। इन स्तुतियों के माध्यम से, तमाम ऐसे कथानक वैदिक साहित्य में भरे पड़े मिलते हैं, जिनका साहित्यिक-स्वरूप, उनके धार्मिक महत्त्व से कम मूल्यवान नहीं ठहरता। ऋग्वेद, देवों को लक्ष्य करके गाये गये स्तोत्रों का बृहत्काय संकलन है । इसमें, तमाम ऋषियों द्वारा, अपनी मनचाही मुराद पाने के लिए, भिन्न-भिन्न देवताओं से की गई प्रार्थनाएँ हैं। तत्त्वतस्तु, जीवन में परमसत्य की प्रतिष्ठा कर लेना, जीवन का सबसे महान् लक्ष्य होता है। ऋग्वेद में, परमसत्य का देवता वरुण को माना गया है। किन्तु, वैदिक आर्य, इस देश में, विजय पाने की लालसा से आये थे। इस विजय का देवता, उन्होंने भ्राजमान इन्द्र को बनाया। शायद यही कारण है, जिसकी वजह से, जीवन की यथार्थता का प्रतिनिधि देवता 'वरुण', विजय के प्रतिनिधि देव इन्द्र की स्तुतियों की बहुलता में, पीछे पड़ा रह गया। इसीलिए, वरुण का स्थान, कुछ काल पश्चात् इन्द्र को मिल गया। __ इस विविधतामयी वर्णना में, कुछ ऐसे कमनीय भाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं, जिनसे यह सहज अनुमान हो जाता है कि ऋग्वेद जैसा आदिम ग्रन्थ भी काव्य कला के उपकरणों से परिपूर्ण है । अलंकारों, ध्वनियों और व्यजनाओं से अनुप्राणित गीतियों में भरी रूपकता, हमें यह अहसास तक नहीं होने देती कि हम किसी देव-स्तोत्र का श्रद्धा वाचन कर रहे हैं, अथवा, किसी शृङ्गार काव्य की सरस-पदावली का रसास्वादन कर रहे हैं । यमयमी के पारस्परिक संवाद की दर्शनीय रसीली छटा, एक ऐसी ही स्थिति मानी जा सकती है। १ चत्वारो वेदाः साङ्गा: सरहस्या: बहुधा भिन्नाः । एकशतमध्वर्यु शाखाः । सहस्रवर्मा सामवेदः । एक विंशतिधा बाह वृत्त्यम् । नवधाऽथर्वाणो वेदः। -पातंजलमहाभाष्य-पस्पशाह्निक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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