SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा (२) नीतिकथा साहित्य (Didactic Tale) (३) लोककथा साहित्य (Popular Tale) (४) रूपकात्मक साहित्य (Alligcrical literature) - डॉ० सूर्यकान्त ने, अपने 'संस्कृत वाङमय का विवेचनात्मक इतिहास' में संस्कृत कथा साहित्य को सिर्फ दो वर्गों-नीतिकथा (Didactic Tales) और लोककथा (Popular Tales) में ही विभाजित किया है।1 भारत, एक ऐसा देश है, जिसके जन-जन का जीवन, जन्म से लेकर मरणपर्यन्त तक, धर्म से परिप्लावित रहता चला आया है। भारत के ऐतिहासिक सन्दर्भो में, कोई भी ऐसा क्षण ढुंढा नहीं जा सकता, जिसमें यह प्रकट होता हो कि भारतीय जन-मानस धर्म-शून्य रहा है। धर्म की इस सार्वकालिक सार्वजनीन व्यापकता को लक्ष्य करते हुये, यही कहना/ मानना पड़ता है कि भारत 'धर्ममय' है। धर्म-विहीन भारत का विचार, कल्पना में भी कर पाना सम्भव नहीं हो पाता। बल्कि, यथार्थ यह है कि भारत को हमें 'धर्म-भूमि' कहना चाहिये । दुनियाँ भर में, यही तो एक ऐसा देश है, जिसकी धरती पर अनगिनत धर्मों की अवतारणाएँ हुईं। ये धर्म, यहाँ विकसे, फुले और फले । और, जब-जब भी भारत भूमि पर धर्मग्लानि (ह्रास) का वातावरण बना, तब-तब किसी न किसी कृष्ण ने अवतीर्ण होकर, धर्म को समृद्ध बनाने की दिशा में, उसका पुनःपुनः संस्थापन किया, या फिर किसी न किसी महावीर ने तीर्थंकरत्व की साधना-समृद्धि के बल पर धर्म-तीर्थ का वर्धापन किया। धर्म वट-वृक्षों के इन्हीं बीजांकुरों के रस-सेक से, भारतीय आत्मा को शाश्वत-शान्ति मिलती रही, किंवा, उसे परमात्मत्व का साक्षात्कार होता रहा। उक्त गुण-सम्पन्न तीन महान् धर्म-संस्कृतियाँ भारत में प्रमुख रही हैं। इन्होंने अपने धार्मिक/दार्शनिक सिद्धान्तों के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए, आख्यानों कथाओं का जी भर कर उपयोग किया है। परिणामस्वरूप, वैदिक, जैन और बौद्ध, इन तीनों ही धर्मों का विशाल साहित्य, आख्यानों और कहानियों का विपुल अक्षय भण्डार बन गया है। इन तमाम कथाओं/आख्यानों को, हम ऐसा आख्यान कह/मान सकते हैं, जिस का समग्र कलेवर, धार्मिक स्फुरणा से ओत-प्रोत है, किंवा जीवन्त है। १. संस्कृत वाङमय का विवेचनात्मक इतिहास-पृष्ठ-३०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy