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प्राकृत जैन कथा साहित्य १६ विभक्त किया था। उसमें धर्मकथानुयोग भी एक विभाग था । दिगम्बर साहित्य में धर्मकथानुयोग को ही प्रथमानुयोग कहा है । प्रथमानुयोग में क्या-क्या वर्णन है, उसका भी उन्होंने निर्देश किया है।1
बताया जा चुका है कि तीर्थंकर महावीर एक उच्चकोटि के सफल कथाकार भी थे। उनके द्वारा कही गई कथाएँ आज भी आगम-साहित्य में उपलब्ध होती हैं । कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जो भिन्न नामों से या रूपान्तर से वैदिक व बौद्ध साहित्य में ही उपलब्ध नहीं होती अपितु विदेशी साहित्य में भी मिलती हैं । उदाहरणार्थ-ज्ञाताधर्मकथा की ७ वीं चावल के पाँच पाँच दाने वाली कथा कुछ रूपान्तर के साथ बौद्धों के सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु तथा बाइबिल' में भी प्राप्त होती है। इसी प्रकार जिनपाल
और जिनरक्षित' की कहानी बलाहस्स जातक व दिव्यावदान में नामों के हेर-फेर के साथ कही गई है। उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन हरिकेशबल की कथावस्तु मातंग जातकमें मिलती है । तेरहवें अध्ययन चित्त-संभूत की कथावस्तु चित्तसंभूत जातक में प्राप्त होती है। चौदहवें अध्ययन इषुकार की कथा हत्थिपाल जातक' व महाभारत के शांतिपर्व में उपलब्ध होती है। उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन 'नमिप्रवज्या' की आंशिक तुलना
१. 'क) अंगपणती द्वितीय अधिकार गाथा ३५-३७
-दिगम्बर आचार्य शुभचन्द्र प्रणीत । (ख) तित्थयर चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेव पडिसत्त । पंच सहस्सपयाणं एस कहा पढम अणिओगो ॥
-श्रु तस्कंध---गा० ३१ आचार्य ब्रह्महेमचन्द । २. सेंट मेथ्यू की सुवार्ता २५, सेंटल्युक को सुवार्ता १६ । ३. ज्ञाताधर्मकथा है। ४. वलाहस्स जातक पृ० १६६ । ५. जातक (चतुर्थखण्ड) ४६७ मातंग जातक पृष्ठ ५८३-६७ । ६. जातक (चतुर्थ खण्ड) ४६८ चित्तसंभूतजातक, पृष्ठ ५६८-६०८ । ७. हत्थिपाल जातक ५०६ । ८. शान्तिपर्व अध्याय १७५ एवं २७७ ।
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