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________________ १८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा रूपक व कथाओं का संकलन था। इसी प्रकार उत्तराध्ययन, विपाक आदि में भी विपुल कथाएँ थीं। मूल प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग भी धर्मकथा के विशिष्ट व महत्त्वपूर्ण ग्रंथ थे । उनका संक्षिप्त परिचय समवायांग व नंदी सूत्र में दिया गया है । मूल प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग बारहवें अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत थे । वह अंग विच्छिन्न हो चुका है, अतः ये अनुयोग भी आज अप्राप्य हैं । मूलप्रथमानुयोग स्थविर आर्यकालक के समय भी प्राप्त नहीं था जो राजा शालिवाहन के समकालीन थे, अतः आर्यकालक ने मूल प्रथमानुयोग में से जो इतिवृत्त प्राप्त हुआ उसके आधार से नवीन प्रथमानुयोग का निर्माण किया। वसुदेवहिंडी, आवश्यक चूणि, आवश्यक सूत्र और अनुयोगद्वार की हारिभद्रीय वृत्ति में जो प्रथमानुयोग का उल्लेख हुआ है, वह आर्यकालक रचित प्रथमानुयोग का होना चाहिए और आवश्यकनियुक्ति में प्रथमानुयोग का जो उल्लेख हुआ है वह मूल प्रथमानुयोग का होना चाहिए ऐसा आगम प्रभावक पंडित मुनि पुण्यविजयजी का मत है। पर अत्यन्त परिताप है कि आर्यकालक रचित प्रथमानुयोग भी आज प्राप्त नहीं है। एतदर्थ भाषा, शैली, वर्णन पद्धति, छन्द और विषय आदि की दृष्टि से उसमें क्या-क्या विशेषताएँ थीं, यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। अनुयोग द्वार की हारिभद्रीयवृत्ति में पञ्च महामेघों के वर्णन को जानने के लिए प्रथमानुयोग का निर्देश किया है। जिससे सम्भव है उसमें अन्य भी अनेक वत्त होंगे । आर्यकालक रचित प्रथमानुयोग के आधार से ही भद्र श्वर सूरि ने कहावली, आचार्य शीलांक ने चउपण्णमहापुरिसचरियं और आचार्य हेमचन्द्र ने त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित की रचना की, ऐसा माना जाता है। आर्यरक्षित ने अनुयोगों के आधार पर आगमों को चार भागों में १. पंचकल्प महाभाष्य गा० १५४५-४६ । २. वसुदेवहिंडी--प्रथम खंड, पत्र २। ३. आवश्यकचूणि भाग १, पत्र १६० । ४. आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति पत्र १११-२ । ५. अनुयोगद्वार हारिभद्रीयवृत्ति पत्र ८० । ६. आवश्यकनियुक्ति गाथा ४१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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