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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
सिद्धर्षि द्वारा व्यक्त इन विचारों से स्पष्ट प्रतोत होता है कि 'उप'मिति-भव-प्रपञ्च कथा' के रचना काल में, जनसाधारण के रोजमर्रा की जिन्दगी का अनिवार्य बोल-चाल प्राकृतमय था। इसलिए, सिद्धर्षि चाहते थे कि अपनी इस कथा को प्राकृत भाषा में लिखा जाये । ऐसा करने में, उन्हें यह आशंका भयभीत किये रही-'प्राकत-भाषा में उपमिति-भवप्रपञ्च कथा लिखने पर, उन्हें पण्डित वर्ग में समादर सुलभ नहीं हो पायेगा। तभी तो उन्हें यह मानकर चलना पड़ा-सरल संस्कृत भाषा का प्रयोग, एक ऐसा उपाय है, जिससे, तत्कालीन जन साधारण को भी इस कथा को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी, और ग्रन्थकार को भी पण्डित वर्ग के उपेक्षाभाव का शिकार न बनना पड़ेगा। इस मध्यम मार्ग का निश्चय दृढ़ करके, उन्होंने यह निर्णय लिया कि समी लोगों का-जनसाधारण और पण्डित वर्ग का भी-मनोरंजन हो, ऐसा उपाय (सरल संस्कृत भाषा के प्रयोग को सामर्थ्य) होने के कारण, इन सबकी अपेक्षाओं/ अनुरोधों को दृष्टिगत करते हुए, मैंने इस ग्रन्थ की रचना संस्कृत भाषा में की है।
सिद्धर्षि के इस निश्चय से यह पुष्टि होती है कि उनके ग्रन्थ रचना काल में, संस्कृत और प्राकृत का संघर्ष, उत्कर्ष पर पहुंच चुका था। इसी संघर्ष के प्रतिफल स्वरूप, उस युग का सामाजिक, साहित्य और दर्शन की रचनाओं में पाण्डित्य-प्रदर्शन से यह निष्कर्ष निकालने लगा था कि किस धर्म/दर्शन के प्रचारकों/समर्थकों में, कौन/कितना बड़ा पण्डित है, विद्वान् है । सम्भव है, इस प्रदर्शन से भी जनसाधारण का झुकाव, धर्म विशेष में आस्था जमाने का निमित्त बनने लगा हो । अन्यथा, कोई और, ऐसा प्रबल कारण समझ में नहीं आता, जिससे, बहुजनोपयोगी प्राकृत-भाषा को ताक पर रखकर, मात्र पण्डित वर्ग की भाषा को, ग्रन्थ-प्रणयन के माध्यम के रूप में अंगीकार किया जाये । भारतीय आख्यान कथा साहित्य
भारतीय आख्यान/कथा साहित्य को, विश्व-भर के सुविशाल वाङ - मय में, एक सम्मानास्पद प्रतिष्ठा प्राप्त है । इस सम्मान प्रतिष्ठा के पीछे,
१ उपाये सति कर्त्तव्यं सर्वेषां चित्तरञ्जनम् ।
अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ।।
-वही
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