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आगमोत्तर कालीन कथा साहित्य ३३१ युक्ति पूर्वक करना, और स्वमत का स्थापन भी तर्क पूर्ण कसौटो पर जाँच-परख कर करना, इस युग के ग्रन्थकारों का महनीय दायित्व बन गया था।
इतना ही नहीं, इस युग में, भावना भी बलवती हो चुकी थी कि जो विद्वान्, संस्कृत भाषा में ग्रन्थ-प्रणयन की सामर्थ्य नहीं रखता, वह वस्तुतः विद्वत्कोटि का पाण्डित्य भी नहीं रखता । इस उपेक्षित भावना से परिपूर्ण वातावरण ने, जैन दार्शनिकों के मानस में भी मन्थन पैदा कर दिया। इसी मन्थन के नवनीत-स्वरूप, जैन धर्म-दर्शन के महत्वपूर्ण संस्कृत-ग्रन्थों की सर्जनाएँ हुई। जिनमें, जैन-धर्म और दर्शन का स्वरूप एवं सिद्धान्त, विस्तार-विवेचना को आत्मसात् कर सका।
इस प्रयास से, जैन विद्वानों ने, सामयिक समाज पर यह छाप डालने में भी सफलता प्राप्त की कि जन-विद्वान्, मात्र प्राकृत-भाषा के ही पण्डित नहीं हैं, वरन् संस्कृत भाषा के भी वे उद्भट विद्वान् हैं । और उनमें, स्व-सिद्धान्त प्रतिपादन की स्फूर्त-सामर्थ्य के साथ-साथ पाण्डित्य-प्रदर्शन का भी विलक्षण-सामर्थ्य है । पण्डित वर्ग की इस प्रतिद्वन्द्विता को देखते हुए, सम्भवतः जन-साधारण में भी, संस्कृत के अध्ययन और ज्ञान का विशेष शौक उभरा होगा। जिसे लक्ष्य करके भी तत्कालीन पण्डित वर्ग ने अपने सिद्धान्तों और मन्तव्यों को प्रकट करने में, लोकमानस के अनुरूप सरलसंस्कृत को अपने ग्रन्थों के प्रणयन की भाषा के रूप में स्वीकार किया।
सिद्धर्षि, इस युगीन स्थिति से पूर्णतः परिचित प्रतीत होते हैं । इसका ज्ञान, उनके स्वयं के कथन से होता है। उन्होंने स्वीकार किया है कि संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं को, उनके ग्रन्थ-रचनाकाल में, प्रधानता प्राप्त थी। किन्तु पण्डित वर्ग में, संस्कृत भाषा को विशेष समादर प्राप्त था। प्राकृत-भाषा को इस समय के बच्चे तक भलीभाँति समझते थे । जन-साधारण को बोध कराने की भी इसमें प्रबल सामर्थ्य है । फिर भी, यह प्राकृत भाषा, विद्वानों को अच्छी नहीं लगती। शायद, इसीलिए वे (पण्डित-जन) प्राकृत भाषा में बोल-चाल नहीं करते ।। १ संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमहतः ।
तत्रापि संस्कृता तावत् दुर्विदग्धहृदि स्थिता ॥ बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला । तथापि प्राकृता भाषा न तेषामभिभाषते ॥
-उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा, प्रथम प्रस्ताव
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