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३३० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा राग-द्वेष रहित होना । जिस का चित्त राग-द्वेष से कलुषित है, वह संस्कृतज्ञ भले ही हो, किन्तु तत्वज्ञ नहीं हो सकता। क्योंकि, सत्य का साक्षात्कार करने में 'भाषा' कहीं भी माध्यम नहीं बन पाती।
महावीर की इसी सोच-समझ ने उन्हें प्रेरणा दी, तो उन्होंने अपने द्वारा अनुभूत सत्य का, तत्व का स्वरूप-प्रतिपादन प्राकृत भाषा में किया। महावीर की भावना थी, यदि वे जन-साधारण को समझ में आने वाली भाषा में तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे, तो वह उपदेश एक ओर तो बहुजन उपयोगी बन जायेगा, दूसरी ओर संस्कृत न जानने वाला बहुजन समुदाय, यह भी जान जायेगा कि तत्त ज्ञान के लिए, किसी भाषा विशेष का जानकार होने का प्रतिबन्ध यथार्थ नहीं हैं।
___ महावीर के इस प्रयास का सुफल यह हुआ कि जैन धर्म और साहित्य के क्षेत्र में लगभग पांच सौ वर्षों तक निरन्तर प्राकृत भाषा का व्यवहार होता चला गया । इसलिए जैन धर्म का मूलभूत साहित्य प्राकृत भाषाप्रधान बन गया। महावीर के इस भाषा-प्रस्थान में जैन मनीषियों का संस्कृत के प्रति कोई विद्वेष भाव नहीं था, बल्कि उनका आशय अपने धर्मोपदेश की प्रभावशालिता के लक्ष्य पर निर्धारित रहा। आर्य र क्षित का वचन स्वयं साक्षी देता है कि उनके समय में संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं को समान आदर सुलभ था। दोनों ही ऋषि भाषा कहलाती थीं।
तत्वार्थ सूत्र जैन साहित्य का सर्वप्रथम संस्कृत ग्रन्थ है, ऐसा प्रतीत होता है। इसके रचयिता उमास्वाति (स्वामी) का समय विक्रम की तीसरी शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है । यही वह युग है, जिसमें जैन परम्परा में संस्कृत के उपयोग का एक नया युग शुरू हुआ। तो भी जैन धर्म और साहित्य के क्षेत्र में प्राकृत का उपयोग अनवरत चलता रहा। किन्तु दार्शनिक यूग के आते-आते जैन मनीषियों को स्वतः यह स्पष्ट अनुभूत हुआ कि जैन धर्म और दर्शन की व्यापक प्रतिष्ठा के लिए संस्कृत का ज्ञाता होना उन्हें अनिवार्य है । दार्शनिक युग की विशेषता यह रही है कि इस युग में भारतीय दर्शन की अनेकों शाखाओं में प्रबल प्रतिद्वन्द्विता छिड़ी हुई थी। फलतः अपने मत की स्थापना में ग्रन्थकारों को प्रबल तों का सामना करना पड़ा। इन प्रतिद्वन्द्वी तर्कों का विखण्डन
१ जन्म-ई० पू० ४ (वि० सं० ५२), स्वर्गवास-ई० सन् ७१ (वि० सं० १२७) २ सक्कयं पागयं चेव पसत्थं इसिभासियं ॥
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