SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३२६ जगत के इस काव्यानन्द को सच्चिदानन्द का परिपूर्ण स्वरूप माना गया है । इस तरह हम देखते हैं कि वेदों के अति रहस्यमय ज्ञान से लेकर जनसाधारण के मनोविनोद सम्बन्धी कथाओं तक जितना भी साहित्यिक वैभव विद्यमान है, वह सारा का सारा संस्कृत भाषा में सुरक्षित है । इस आधार पर यह कहा जा सकता है - 'साहित्यिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और राजनैतिक जीवन की समग्र व्याख्या संस्कृत साहित्य / वाङमय में सर्वात्मना समाहित हैं ।' जैन साहित्य में संस्कृत का प्रयोग जैन धर्म और साहित्य का कलेवर भी व्यापक परिमाण वाला हैं । इसके प्रणयन में संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं का मौलिक उपयोग किया गया। यद्यपि, जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर ने अपना सारा उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिया । उसे संकलित / गुम्फित करने में उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि गणधरों ने भी प्राकृत भाषा को उपयोग में लिया, तथापि कालान्तर में आगे चलकर जैन मनीषियों ने संस्कृत भाषा को भी अपने ग्रन्थ-प्रणयन का माध्यम बनाया। और संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया। वैसे, जैन मान्यतानुसार पुरातन जैन धर्म और दर्शन की परम्परागत अनुश्रुतियाँ यह बतलाती हैं कि जैन धर्म का मौलिक पूर्व साहित्य संस्कृत भाषा बद्ध था । भगवान महावीर के काल तक प्राकृत भाषा जन साधारण के बोलचाल और सामान्य व्यवहार में पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी थी । और संस्कृत उन पण्डितों की व्यवहार-सीमा में सिमट चुकी थी, जो यह मानने लगे थे कि संस्कृतज्ञ होने के नाते सिर्फ वे ही तत्वदृष्टा और तत्वज्ञाता हैं । जो लोग संस्कृत नहीं जानते थे, वे भी यह स्वीकार करने लगे थे कि तत्व की व्याख्या कर पाना उन्हीं के बलबूते की बात है, जो 'संस्कृतविद्' हैं । इस स्वीकृति का परिणाम यह हुआ कि महावीर युग तक संस्कृत न जानने वालों की बुद्धि पर संस्कृतज्ञ छा गये । महावीर ने इस स्थिति को भली-भाँति देखा-परखा और निष्कर्ष निकाला कि सत्य की शोध-सामर्थ्य तो हर व्यक्ति में मौजूद हैं। संस्कृत के जानने न जानने से, तत्वबोध पर कोई प्रभावकारी परिणाम नहीं पड़ता । वस्तुतः तत्वज्ञान के लिए जो वस्तु परम अपेक्षित हैं, वह है-चित्त का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy