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________________ ३२८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा करेगा, इस अनुभूत यथार्थ से भी वह परिचित है। यही कारण है कि भारतीय साहित्य का लक्ष्य सदा-सर्वदा से मंगलमय, कल्याणमय पर्यवसान रहता आया है। यही दार्शनिकता, संस्कृत साहित्य में अनुकरणीय, अनुरारणीय बनकर चरितार्थ होती आ रही है। दरअसल, संस्कृत नाटकों के दुःखान्त न होने का यही मूलभूत कारण है, रहस्य है। समाज के स्वरूप का यथार्थ चित्रण साहित्य में होता है । इसलिए यह कहा जाता है-'साहित्य समाज का दर्पण है।' समाज और संस्कृति, दोनों ही साथ-साथ जुड़े होते हैं ; जैसे—सूर्य का प्रकाश और प्रताप साथसाथ जुड़े रहते हैं। अतः साहित्य, जिस तरह समाज को स्वयं में प्रतिबिम्बित करता है, उसी तरह, वह समाज से जुड़ी संस्कृति का भी मुख्य वाहक होता है। समाज, मानव समुदाय का बाह्य परिवेष है, तो संस्कृति उसका अन्तःस्वरूप है। जिस समाज का अन्तः और बाह्य परिवेश, भौतिकता पर अवलम्बित होगा, उसका साहित्य भी आध्यात्मिकता का वरण नहीं कर पाता। किन्तु जिस समाज का अन्तःस्वरूप आध्यात्मिक होगा, उसका बाह्य-स्वरूप, भले ही भौतिकता में लिप्त बना रहे, ऐसे समाज का साहित्य, आध्यात्मिकता से अनुप्राणित हुए बिना नहीं रह सकता। भारतीय समाज का अन्तःस्वरूप मूलतः आध्यात्मिक है। इसलिए, संस्कृत साहित्य का भी हमेशा यही लक्ष्य रहा कि वह, आध्यात्मिकता का सन्देश सामाजिकों तक पहुँचाकर उनमें नव-जागरण का चिरन्तन भाव भर सके। भारतीय समाज में सांसारिक/भौतिक सुखों के सभी साधन, सदासर्वदा से सुलभ रहते आये हैं। यहाँ का सामाजिक, जीवन-संघर्षों से जूझता हुआ भी आनन्द को उपलब्धि को, आनन्द की अनुभूति को अपना लक्ष्य मानकर चलता रहा। विषम से विषमतम परिस्थितियों में भी आनन्द को खोज निकालना, भारतीय मानस की जीवन्तता का प्रतीक रहा है। वह आनन्द को सत्, चित् स्वरूप मानता है। इसलिए भारतीय साहित्य का विशेषकर संस्कृत साहित्य का लक्ष्य भी सत् + चित् स्वरूप आनन्द की उपलब्धि की ओर उन्मुख रहा। उसका अन्तिम लक्ष्य भी यही बना। संस्कृत काव्यों की आत्मा 'रस' है। रस का उद्रक श्रोता/पाठक के हृदय में आनन्द का उन्मेष कर देता है। यह जानकर भी, सस्कृत साहित्य में रीति, औचित्य, गुण तथा अलंकार आदि का विस्तृत विवेचन किया अवश्य गया है, किन्तु उसका मुख्य प्रतिपाद्य रस-निष्पत्ति ही है। काव्य. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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