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________________ ३२६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा साहित्य' (कम्परेटिव माइथालॉजी) जैसे एक अधुनातन शास्त्र को आविCकृत कर सके । सारांश रूप में यही कहा जा सकता है कि संस्कृत साहित्य एक ऐसा विशाल स्रोत है, जिससे प्रवाहित हुई विधिन्न धर्म सरिताओं ने मानवता के मन-मस्तिष्क के कोने-कोने को अपनी सरस्वती से रसवान् बनाकर आप्यायित कर डाला । संस्कृत साहित्य ने संस्कृति की जो अनुपम विरासत भारत को दी है, उसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता है । संस्कृत के काव्यों में भारतीयता का अनुपम गाथा-गान सुनाई पड़ता है तो संस्कृत नाटकों में उसका नाट्य और लास्य भी अपनी कोमल कमनीयता में प्रस्तुत हुआ है । त्याग की धरती पर अंकुरित और तपस्या के ओज से पोषित आध्यात्मिकता तपोवनों गिरिकन्दराओं में संबंधित होती हुई जिस संस्कृति का स्वरूप निर्धारण करती रही उसी का सौम्य दर्शन तो वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भवभूति, माघ, बाण और दण्डी आदि के काव्यों में देखकर हृदय कलिका प्रमुदित/ प्रफुल्लित हो उठती है । संस्कृत का साहित्यिक मस्तिष्क कभी भी संकीर्ण नहीं रहा है। उसके विचार किसी भी सीमा रेखा में संकुचित न रह सके। समाज के विशुद्ध वातावरण में विचरण करते हुए उसके हृदय को सामाजिक दुःखदर्दों ने स्पर्श कर लिया तो वह दीन दुःखियों की दीनता पर चार आँसू बहाये बगैर न रह सका । सहज सुखी जीवों के भोग-विवासों पर वह रीझरीझ गया । उसका हृदय सहानुभूति से स्निग्ध और द्रवित बना ही रहा । फलतः संस्कृत साहित्य में भारतीय संस्कृति का एक ऐसा निखरा स्वरूप दृष्टिगोचर होता है जिसमें आध्यात्मिक विचारों के द्योतक मूल्यवान शब्द भण्डार हैं जन-मन की बातों का उनकी प्रवृत्तियों का और सरल - सादगी पूर्ण जिन्दगी जीने की कला के बहुरंगी शब्द - चित्र भी हैं । भारत और चीन के प्रायद्वीप आज 'हिन्द- चीन' के नाम से जाने जाते हैं | परन्तु १३वीं और १४वीं शताब्दी से पहले इन पर चीन का कोई भी प्रभुत्व नहीं था । सुदूर पूर्व में यहाँ जंगली जातियाँ रहती थीं । किन्तु यहाँ पर स्वर्ण की खान थी इसी आकर्षणवश जिन भारतीयों ने इसकी खोज की थी, उन्होंने इसे 'स्वर्णभूमि' या 'स्वर्णद्वीप' का नाम दिया था । सम्राट अशोक के शासनकाल में यहाँ बुद्ध का संदेश पहुँचा । विक्रम की शुरुआत से चौदहवीं शताब्दी तक यहाँ पर अनेकों भारतीय राज्य स्थापित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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