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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य
३२५ भाषा में लिखा गया उसको बराबरी करने वाला विश्व की भाषा में दूसरा साहित्य मौजूद नहीं है ।
इन चारों परम पुरुषार्थों के अलावा विज्ञान, ज्योतिष, वैद्यक, स्थापत्य और पशु-पक्षियों के लक्षणों से सम्बन्धित अगणित ग्रन्थ / रचनायें, संस्कृत साहित्य की विशालता और व्यापकता का जीवन्त उदाहरण वनी हुई हैं । वस्तुतः संस्कृत के श्रेयः और प्रेयः शास्त्रों की विशाल संख्या को देख कर, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा व्यक्त की गई घटनाएँ और उनके उद्गार कहते हैं - संस्कृत-साहित्य का जो अंश मुद्रित होकर अब तक सामने आया है, वह ग्रीक और लेटिन भाषाओं के सम्पूर्ण साहित्यिक ग्रन्थों के कलेवर से दुगुना है। इस प्रकाशित साहित्य से अलग, जो साहित्य अभी पाण्डुलिपियों के रूप में अप्रकाशित पड़ा है, और जो साहित्य विलुप्त हो चुका है, उस सबकी गणना कल्पनातीत है ।
भारतीय सामाजिक परिवेष मूलतः धार्मिक है । फलतः भारतीय संस्कृति भी धार्मिक आचार-विचारों से ओत-प्रोत है । आस्तिकता इसका धरातल है । इसका उन्नततम स्वरूप स्वयं को सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान बना लेने में अथवा ऐसे ही परमस्वरूप में अटूट आस्था प्रतिष्ठापित करने में दिखलाई पड़ता है | भारतीय मान्यता है - सांसारिक क्लेश और राग आदि, मानव जीवन को न सिर्फ कलुषित बना देते हैं, बल्कि उसे सन्ताप भी देते हैं । सांसारिक गृह उसे कारागार सा लगता है और जागतिक मोह उसे पाद बन्धन जैसा अनुभूत होता है । इन सारी विषमताओं, कुण्ठाओं और संत्रासों से उसे तभी छुटकारा मिल पाता है जब वह सर्वशक्तिमान के साथ सादृश्य स्थापित कर ले या फिर उससे तादात्म्य बना ले ।
वैदिक स्तुतियों से लेकर आधुनिक दर्शन के व्यावहारिक स्वरूप विश्लेषण तक धर्म का सारा रहस्य संस्कृत साहित्य में परिपूर्ण रूप से स्पष्टतः व्याख्यायित होता रहा है । वेदों में आर्यधर्म के विशुद्ध रूप की विवेचना है । कालान्तर में इस धर्म और दर्शन की जितनी शाखा प्रशाखाएँ उत्पन्न हुईं, विकसित हुईं, नये-नये मत उभरे उन सबका यथार्थ स्वरूप संस्कृत साहित्य मैं देखा-परखा जा सकता है ।
संस्कृत साहित्य के धार्मिक वैशिष्ट्य का यह महत्व, मात्र भारतीयों ये ही नहीं है, अपितु पश्चिमी देशों के लिए भी, यह समान महत्व रखता है। पश्चिमी विद्वानों ने, संस्कृत साहित्य का धार्मिक दृष्टि से जिस तरह अनुशीलन किया उसी का यह सुफल है कि वे 'तुलनात्मक पुराण
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