SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा ने भरपूर स्थान दिया है। जैसे-दण्डा-दण्डि, केशा-केशि, हस्ता-हस्ति आदि । महाभाष्य में भी, ऐसे न जाने कितने प्रयोग मिलेंगे. जिनका प्रयोग आज भी ग्राम्य-बोलियों तक में मिल जायेगा।1 महर्षि कात्यायन के समय, संस्कृत में नये-नये शब्दों का समावेश होने लगा था। नये-नये मुहावरों का प्रयोग होने लगा था। जैसे-पाणिनि ने 'हिमानी' और 'अरण्यानी' शब्दों को स्त्रीलिंग-वाची शब्दों के रूप में मान्यता दी थी। किन्तु, कात्यायन के समय तक, ऐसे शब्दों का प्रचलन, कुछ मायनों में रूढ़ हो चुका था। या फिर उनका अर्थ-विस्तार हो चुका था। उदाहरण के रूप में, पाणिनि ने 'यवनानी' शब्द का प्रयोग 'यवन की स्त्री के लिये किया था। यही शब्द, कात्यायन काल में 'यवनी लिपि' के लिए प्रयुक्त होने लगा था। पाणिनि का समय, विक्रम पूर्व छठवीं शताब्दी, कात्यायन का समय विक्रम पूर्व चौथी शताब्दी, और पातञ्जलि का समय विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी माना गया है। पाणिनि से पूर्व, महर्षि यास्क ने 'निरुक्त' की रचना की थी। निरुक्त में, वेदों के कठिन शब्दों की व्युत्पत्तिपरक व्याख्य की गई है। निरुक्तकार की दृष्टि में, सामान्यजनों की बोली, वैदिक संस्कृता से भिन्न थी। इसे इन्होंने 'भाषा' नाम दिया। और, वैदिक कृदन्त शब्दों की जो व्युत्पत्ति बतलाई, उसमें, लोक-व्यवहार में प्रयोग आने वाले धातुशब्दों को आधार माना ।। संस्कृत के उन तमाम शब्दों का उल्लेख भी निरुक्त में किया गया है, जो संस्कृत से प्रान्तीय भाषाओं में, या तो रूपान्तरित हो चुके थे, या फिर उन्हें विशिष्ट प्रयोगों में काम लिया जाता था ।५ पाणिनि ने 'प्रत्यभिवादेऽशूद्र' सूत्र के उदाहरण के रूप में 'आयुष्मान् एधि देवदत्त' जैसे उदाहरणों के साथ-साथ, अलग-अलग क्षेत्रों में प्रयुक्त और रूपान्तरित १ करोतिरभूत् प्रादुर्भावे इष्टः, निर्मलीकरणे चापि विद्यते । पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु, उन्मृदानेति गम्यते । --महाभाष्य १-३-१ २ हिमारण्ययोर्महत्वे । -१-१-११४ पर वातिक ३ यवनाल्लिप्याम् -४/१/१२४ पर वातिक, ४ भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगमाः कृतो भाष्यन्ते । -निरुक्त २/२ ५ शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाष्यते । विकारमस्यार्थेषु भाष्यन्ते शव इति । दातिर्लवनार्थे प्राच्येषु, दात्रमुदीच्येषु । -निरुक्त-२/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy