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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३१६ पुरोहित वर्ग के सामान्य व्यवहार की भाषा तो थी ही, साथ ही यह एक बड़े जन-समुदाय के बीच भी बोल-चाल के लिए व्यवहार में लायी जाती थी।
यह बात अलग है कि इसी मुद्दे को लेकर, विद्वानों में दो अलगअलग प्रकार की मान्यताएं उभर कर सामने आ चुकी हैं। एक दृष्टि से 'संस्कृत' मात्र साहित्यिक भाषा थी। बोल-चाल की सामान्य भाषा 'प्राकृत' थी। दूसरे मत में संस्कृत; भारतीय जन-साधारण के बोल-चाल की भी भाषा रही। किन्तु प्राकृत भाषा के उदय के फलस्वरूप, इसका व्यवहार-क्षेत्र कम होता चला गया। तथापि, शिष्ट-वर्ग में, इसका दैनंदिन उपयोग व्यवहार में बना रहा।
आर्यावर्त के विद्वान ब्राह्मण 'शिष्ट' माने जाते थे। भले ही, संस्कृत का परिपक्व बोध उन्हें हो, या न हो । पर, आनुवंशिक परम्परा से, उनके बोल-चाल में, शुद्ध संस्कृत का प्रयोग अवश्य होता रहा । यही वजह थी, उनके प्रयोगों को आदर्श मानकर, दूसरे लोग भी, उनकी देखा-देखी शब्दों का शुद्ध प्रयोग किया करते थे।' इन शब्दों के उच्चारण में अशुद्धि होती रहे, वह एक दूसरी बात थी । क्योंकि वे, संज्ञा पदों के रूप में, प्रायः प्राकृत शब्दों को ही संस्कृत जैसा रूप देकर प्रयोग करते थे। कई स्थानों पर, क्रियापदों में भी अशुद्धियाँ देखी जा सकती हैं। बहुत कुछ ऐसा ही अन्तर, रामायण में देखने को मिल जाता है।
ब्राह्मणों की शुद्ध वाणी और जनसाधारण की संस्कृत भाषा में स्पष्ट अन्तर पाया जाता है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने अपने भाष्य में 'सूत' शब्द की व्युत्पत्ति पर, एक वैयाकरण और एक सारथी के बीच हए विवाद का आख्यान दिया है । महर्षि पाणिनि ने भी, ग्वालों की बोली में प्रचलित शब्दों का, और चूत-क्रीड़ा सम्बन्धी प्रचलित शब्दों का भी उल्लेख किया है । बोल-चाल में प्रयोग आने वाले अनेकों मुहावरों को भी पाणिनि
१ एतस्मिन् आर्यावर्ते निवासे ये ब्राह्मणाः कुम्भीधान्याः अलोलुपाः अगृह्यमान
कारणाः किञ्चिदन्तरेण कस्याश्चित् विद्यायाः पारंगताः, तत्र भवन्तः शिष्टाः । शिष्टाः शब्देषु प्रमाणम् ।।
-६-३-१०६ अष्टाध्यायी सूत्र पर भाष्य २ एच. याकोबी - डस रामायण-पृष्ठ-११५ ३ २-४-५६ अष्टाध्यायी सूत्र पर भाष्य,
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