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________________ ३१८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा शाखा में संस्कृत भाषा ही प्रमुख है । जेन्द अवेस्ता की तरह, संस्कृत भाषा में भी समग्र भारतीय धार्मिक साहित्य भरा पड़ा है। आज के भारत की सारी प्रान्तीय भाषाएँ, द्रविड़ मूल की भाषाओं को छोड़कर संस्कृत से ही निःसृत हुई है । संस्कृत, समस्त आर्य भाषाओं में प्राचीनतम ही नहीं है, बल्कि उसके (आर्यभाषा के) मौलिक स्वरूप को जानने / समझने के लिए, जितने अधिक साक्ष्य, संस्कृत भाषा में उपलब्ध हो जाते हैं, उतने, किसी दूसरी भाषा में नहीं मिलते । पश्चिमी शाखा के अन्तर्गत ग्रीक लैटिन, ट्यूटानिक, फेंच, जर्मन, अंग्रेजी आदि सारी यूरोपीय भाषायें सम्मिलित हो जाती हैं । इन सब का 'मूल उद्गम 'आर्यभाषा' है । संस्कृत भाषा के भी दो रूप हमारे सामने स्पष्ट हैं-वेदिक और लौकिक, यानी लोकभाषा । वैदिक संहिताओं से लेकर वाल्मीकि के पूर्व तक का सारा साहित्य वैदिक भाषा में है । जब कि वाल्मीकि से लेकर अद्यन्तनीय संस्कृत रचनाओं तक का विपुल साहित्य 'लौकिक संस्कृत' में गिना जाता है, यही मान्यता है विद्वानों की । दरअसल, आर्यों के पुरोहित वर्ग ने, अपने धार्मिक क्रिया-कलापों के लिए जिस परिष्कृत / परिमार्जित भाषा को अंगीकार किया, वही भाषा, संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों का माध्यम बनी । कालान्तर में इसके स्वरूप व्यवहार में धीरे-धीरे होता आया परिवर्तन, जब स्थूल रूप में दृष्टिगोचर होने लगा, तब उसे पुनः परिष्कृत करके एक नये व्याकरण शास्त्र के नियमों में ढाल कर, नया स्वरूप प्रदान कर दिया गया । इस नये परिष्कृत स्वरूप को ही लौकिक संस्कृत के नाम से जाना गया । कुछ आधुनिक भाषा - शास्त्रियों की मान्यता है - संस्कृत का साहित्य भण्डार, यद्यपि काफी प्रचुर है, तथापि, उसे जन-साधारण के बोल-चाल / पठन-पाठन की भाषा बनने का गौरव कभी नहीं मिल पाया । इन विद्वानों की दृष्टि में, संस्कृत एक ऐसी भाषा है, जिसमें सिर्फ साहित्यिक सर्जना भर की सामर्थ्य रही, और है । उसकी यह कृत्रिमता ही, उसे शिष्ट व्यक्तियों के दायरे तक सीमित बनाये रही । इसलिए, इसे 'भाषा' कहने की बजाय 'वाणी' 'भारती' आदि जैसे समादरणीय सम्बोधन दिये गये । किन्तु; उपलब्ध लौकिक साहित्य में ही कुछ ऐसे अन्तःसूत्र उपलब्ध होते हैं, जिनसे, यह स्पष्टतः फलित होता है कि 'संस्कृत' शिष्ट, विप्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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