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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य
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'राक्षस' नहीं था कि जगत का बाह्य परिवेश राक्षसी था, बल्कि, वह इसलिए राक्षस था कि उसका स्वयं का समग्र अन्तःकरण 'राक्षसत्व' से, 'रावणत्व' में सरावोर रहा ।
इसलिए, 'उपमिति भव-प्रपञ्च कथा' के प्रणयन का श्रमसाध्य दायित्वपूर्ण आचार, इस आशा के साथ निभाया कि यदि एक जीवात्मा का अन्तःकरण भी, ज्ञान के आलोक से एक बार जगमगा उठा, तो उसका समग्र जीवन, ज्योतिर्मय बनने में देर नहीं लगेगी । इस आशय को, उन्होंने अपने इस कथा - प्रन्थ में स्वयं स्पष्ट किया है - 'इस ग्रन्थ को मैं इसलिए बना रहा हूँ कि इसमें प्रतिपादित ज्ञान आदि का स्वरूप, सर्वजन - ग्राह्य हो सकेगा । यदि, कदाचित् ऐसा न भी हो सका, तो भी, संसार के समस्त प्राणियों में से किसी एक प्राणी ने भी इसका अध्ययन, मनन और चिन्तन करके, अपने आचरण को शुद्धभाव रूप में परिणमित कर लिया, और वह सन्मार्ग पर आलिया, तो मैं अपने इस परिश्रम को सफल हुआ मानूँगा ।" संस्कृत भाषा एवं साहित्य का विकास - क्रम
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'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से निष्पन्न शब्द है - 'संस्कृत' | जिसका अर्थ होता है - 'एक ऐसी भाषा, जिसका संस्कार कर दिया गया हो ।' इस संस्कृत भाषा को 'देववाणी' या 'सुरभारती' आदि कई नामों से जाना / पहिचाना जाता है । आज तक जानी / बोली जा रही, विश्व को तमाम परिष्कृत भाषाओं में प्राचीनतम भाषा 'संस्कृत' ही है । इस निर्णय को, विश्व भरका विद्वद्वृन्द एक राय से स्वीकार करता है ।
भाषा वैज्ञानिकों की मान्यता है कि विश्व की सिर्फ दो ही भाषाएँ ऐसी हैं, जिनके वोल-चाल से संस्कृतियों / सभ्यताओं का जन्म हुआ, और, जिनके लिखने / पढ़ने से व्यापक साहित्य वाङ्मय की सर्जना हुई । ये भाषाएँ हैं - 'आर्य भाषा' और 'सेमेटिक भाषा' । इनमें से पहली भाषा 'आर्यभाषा' की दो प्रमुख शाखाएँ हो जाती हैं - पूर्वी और पश्चिमी । पूर्वी शाखा का पुनः दो भागों में विभाजन हो जाता है । ये विभाग हैईरानी और भारतीय ।
ईरानी भाषा में, पारसियों का सम्पूर्ण मौलिक धार्मिक साहित्य लिखा पड़ा है । इसे 'जेन्द अवेस्ता' के नाम से जाना जाता है । भारतीय
१ उपमिति सव - प्रपञ्च कथा - प्रथम प्रस्ताव, पृष्ठ १०३
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