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________________ ३१६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा स्थान पर उसमें अनन्त अमरता समाहित हो चुकी थी। ऐसे में, ग्वालों के भय-आशंका पूरित निवेदन से, भला वे क्यों सहमते ? अपना पथ परिवर्तन क्यों करते ? ___ग्वालों द्वारा निषिद्ध पथ पर, अपने दृढ़ कदम बढ़ाने के पीछे, महावीर का यह आशय भी नहीं था कि वे उन ग्वालों के ग्राम्य-मन पर प्रभाव डालना चाहते हों कि निर्ग्रन्थ संत, काल की विकरालता से भी भयभीत नहीं होते । बल्कि, उनके मन में, ग्वालों के पूर्वोक्त कथन-श्रवण से प्रादुर्भूत वह करुणापूरित भाव आन्दोलित हो उठा था, जिसमें पापी चण्डकौशिक के विद्रोही मन में भरी विकरालता को विगलित करके, उसके स्थान पर, उसमें अमृतत्व समाहित कर देने की चाह निहित रही थो। वस्तुतः स्वयं के अभ्युदय और उत्कर्ष की परम-समृद्धि को सम्प्राप्त कर लेना 'जिनत्व' और 'केवलित्व' की साधना की सफलता का द्योतक हो सकता है, पर, 'तीर्थकरत्व' को चरितार्थता तो तभी सार्थक बन पाती है, जब एक के वली, एक जिन, भव-भयत्रस्त मानवता के मन में अमृतत्व को प्रतिष्ठित कर पाने में सफल बनता है। महावीर के उक्त आचरण में, गोपालों द्वारा वजित मार्ग पर हो अग्रसर होने के मूल में, महावीर के तीर्थङ्करत्व की सफलता और चरितार्थता का एक सार्थक चिरस्थायी मानदण्ड स्थापित होने का संयोग पूर्व निर्धारित था; इस बात को, वे बखूबी जानते थे। ___ महावीर जानते थे कि चण्डकौशिक के मन में बसी विकरालता को, भयंकरता को निकाल कर फेंक देने के बाद, एक बार उसमें अमृत-ज्योति जगमगा उठी, तो फिर उसका सारा जोवन, अपने आप ज्योतिर्मय बन जायेगा। महर्षि सिद्धर्षि प्रणोत, ‘उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' के प्रस्तावनालेखन के इस प्रसङ्ग में, आगम-वणित उक्त घटनाक्रम और उससे जुड़ा मेरा चिन्तन, आज मुझे सहसा स्मरण हो आया। इसलिए कि महर्षि सिर्षि का आशय भी ‘उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' के प्रणयन के प्रसङ्ग में, बहुत कुछ वैसा ही रहा है, जैसा कि किसी तीर्थङ्कर के पवित्र जीवन-दर्शन के अध्ययन-मनन, चिन्तन से आप्लावित आचरण में प्रतिस्फूर्त होना चाहिए । सिद्धर्षि जानते थे - चण्डकौशिक को भयङ्करता, बाह्य जगत की भयङ्करता पर आधारित नहीं थी, बल्कि उसका आधार, उसके मन में, उसके अन्तस् में, गहराई तक जड़ें जमाये बैठा था। रावण भी, इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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