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________________ उपनय कथाएँ ३१३ गया है । ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए उच्च कुलोत्पन्न शब्द व्यवहृत हुआ है । वैश्य का मुख्य कार्य व्यापार था, इसलिए उनके लिए 'वणिक' शब्द का भी प्रयोग हआ है। शूद्रों की स्थिति शोचनीय थी, किन्तु भगवान महावीर ने शूद्रों को साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अधिकार दिया । 'हरिके शबल' चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुए थे किन्तु उन्होंने उच्च पद प्राप्त किया। पारिवारिक जीवन में मुख्य रूप से पुरुष ही शासक होता था । अपवाद रूप से स्त्रियां भी शासन करती थी, जैसे-थावच्चापुत्र की माता ! ग्रन्थ में नारी के सभी रूप प्रकट हुए हैं -माता, पत्नो, बहन, वध, पुत्री, पुत्रवधू, वेश्या आदि । नारी के पतित और आदर्श ये दोनों रूप बताये गये हैं। नारी जहाँ वासना के दलदल में फंसती है, वहाँ वह स्वयं भी पतित होती है और दूसरों को भी पतित करती है और जब नारी अपने स्वरूप को पहचानती है तो वह पुरुषों को सन्मार्ग पर लाती है, जैसे-रथनेमि को राजीमती ने, इषकार राजा को रानी कमलावती ने प्रतिबुद्ध किया। उस युग में पशुधन पर्याप्त था। पशु विविध कार्यों में उपयोगी थे, हाथी और घोड़ों का उपयोग युद्ध में होता था। हाथियों में 'गंधहस्ती' सर्वश्रेष्ठ था और घोड़ों में कम्बोज देशोत्पन्न घोड़े सुशिक्षित, युद्धोपयोगी और श्रेष्ठ माने जाते थे। कालिकद्वीप के अश्व भी उत्तम नस्ल के माने जाते थे। आनन्द आदि श्रावकों के पास हजारों गायों के गोकुल थे। पशुओं को शिक्षण भी दिया जाता था। शिक्षित पशु-पक्षी जन-जन का मनोरंजन भी करते थे। व्यापार सुदूर प्रदेशों में भी चलता था। समृद्र यात्रायें भी होती थीं पर आज की तरह उस युग में समुद्र यात्रा सरल नहीं थी। कई बार संचालक मार्ग भूलकर दिशाभ्रमित हो जाता था । तूफान आने पर रक्षा के लिए समुचित साधन नहीं थे । मुख्य रूप से उस समय सोलह महारोग प्रचलित थे। बहुत से चिकित्सक भी थे, जो वमन, विरेचन, औषधि सेवन, धूम्रप्रदान, नेत्रस्नान, सर्वोषधिस्नान, मन्त्र विद्या आदि के द्वारा चिकित्सा करते थे। उस युग में मंत्र-तंत्र, शक्ति तथा शुभाशुभ फल प्रदान करने वाले तन्त्रों में भी विश्वास था। समाज में सुख-शांति बनाये रखने के लिए शासन व्यवस्था थी। शासन करने वाला राजा कहलाता था। वे प्रायः एक देश के स्वामी होते थे। वे अपने देश की उन्नति के लिए प्रयत्न करते थे। सभी देशों पर एकछत्र राज्य करने वाला 'चक्रवर्ती' कहलाता था। सभी राजागण चक्रवर्ती को नमस्कार करते थे । लावारिस सम्पत्ति का अधिकारी राजा होता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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