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३१४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
राजागण अपनी कोषवृद्धि के लिए जागरूक रहते थे । चोर आदि को दण्ड दिया जाता था । भयंकर अपराध होने पर मृत्युदण्ड का भी विधान था । वधस्थान पर ले जाते समय अपराधी की एक निश्चित वेशभूषा थी । उसे शहर में घुमाया जाता, जिससे अन्य लोग वैसा कार्य न करें । शरणागत की रक्षा के लिए प्राणों की भी बाजी लगाई जाती थी । नाट्यकला, स्थापत्यकला, संगीतकला, चित्रकला आदि कलाओं के विकास में राजा और श्रेष्ठियों का योगदान होता था । जन-मानस की प्रवृत्ति भोगविलास की ओर अधिक थी । उस प्रवृत्ति पर नियन्त्रण करने के लिये साधुगण कठिन परीषह सहन कर ग्रामानुग्राम विचरण करते और अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियो को त्यागमार्ग का पावन उपदेश प्रदान करते थे । इस प्रकार प्रस्तुत धर्मकथानुयोग में उस युग के समाज और संस्कृति का परिचय मिलता है । किसी एक काल विशेष की रचना न होने से इसमें चित्रित समाज और संस्कृति को एक कालविक्षेष का पूर्ण चित्र नहीं कह सकते तथापि तात्कालिक समाज और संस्कृति की झलक विभिन्न प्रसंगों में अवश्य मिलती है ।
मेरी दृष्टि से जैन कथा साहित्य का वैदिक और बौद्ध साहित्य के साथ तुलनात्मक व समीक्षात्मक अध्ययन होना चाहिए। उस अध्ययन में बहुत कुछ नये तथ्य प्रकट हो सकते हैं । आज आवश्यकता है - शोधाथियों को व्यापक दृष्टि से अनुसंधान करने की । मैंने अपनी प्रस्तावना में कुछ कथाओं का इस दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है । इस कार्य को अधिक व्यापक रूप देने की आवश्यकता है ।
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