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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
६. साधना मार्ग के स्वरूप को समझाने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र का विश्लेषण ।
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७. आचार की विशुद्धि अहिंसा से और विचार की विशुद्धि अनेकांत - स्याद्वाद से ही सम्भव है । अतः उन सिद्धान्तों की प्ररूपणा |
८.
भौतिकवाद की मृग मरीचिका अध्यात्मवाद की वास्तविकता से ही मिट सकती है । इस बात का अनेक दृष्टियों से निरूपण किया गया है । दया, ममता, करुणा आदि सद्गुणों के उद्घाटन से मानवता की प्रतिष्ठा हो सकती है । राग द्वेष आदि के संस्कार अनात्मभाव के प्रतीक है। मानव स्वयं का भाग्य विधाता है । वह परोक्ष शक्ति का पल्ला छोड़कर अपने पुरुषार्थ में विश्वास करता है ।
९. हिंसामूलक वैदिक क्रियाकाण्डों का वैचारिक विरोध है । १०. यात्रा सम्बन्धी विशिष्ट जानकारी ।
११. कर्मवाद की गुरु ग्रन्थियों को कथाओं द्वारा सुगम रीति से व्यक्त किया है । पुण्य और पाप का सफल चित्रण भी इसमें विवेचित है । १२. शोषित और शोषक में समता लाने हेतु अपरिग्रह एवं संयम का निरूपण ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास के विकास में इस आगमिक कथा साहित्य का गौरवपूर्ण स्थान है । उस युग की उदात संस्कृति का इन कथाओं ने यत्र-तत्र निरूपण हुआ है । इन कथाओं में कितने ही पात्र प्राग ऐतिहासिक काल के हैं तो कितने ही पात्र ऐतिहासिक काल के हैं और कितने ही पात्र पौराणिक और काल्पनिक भी है।
इन कथाओं में तात्कालिक सामाजिक और सांस्कृतिक जन-जीवन का पता चलता है । आर्य और अनार्य के रूप में दो मुख्य जातियाँ थीं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण थे । जैन दृष्टि से जो व्यक्ति सदाचारी है, वह आर्य है । यदि ब्राह्मण, भी सदाचार रहित है तो वह अनार्य है । जातिमद में उन्मत्त बने हुए ब्राह्मणों का विरोध करते हुए स्पष्ट कहा—'कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र होता है ।' केवल सिर मुँड़ा लेने से श्रमण नहीं होता, ओंकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने मात्र से मुनि नहीं होता कुश और चीवर को धारण करने से तपस्वी नहीं होता; अपितु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है । इस तरह जातिवाद एवं वर्णवाद का खण्डन कर कर्म को महत्व दिया
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